Book Title: Studies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Author(s): G C Tripathi, Ashokkumar Singh
Publisher: Bhogilal Laherchand Institute of Indology
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198 Studies in Umāsvāti उद्धरण दिया है
- "तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिद तच्चत्थसुत्ते वि वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो परूविदो।"
आचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और वादिराज ने पार्श्वनाथचरित' में गृद्धपिच्छ मुनीश्वर का स्मरण किया है। तत्त्वार्थसूत्र के एक टीकाकार ने गृद्धपिच्छाचार्य नाम के साथ उमास्वामी मुनीश्वर नाम का उल्लेख भी तत्त्वार्थसूत्र के लेखक के रूप में किया है -
तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम्।। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में गृद्धपिच्छ नाम के साथ उमास्वाति नाम भी दिया गया है और उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द के वंश में उत्पन्न बताया गया है
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन।। स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृद्धपक्षान्।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तर गृद्धपिच्छम्।। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी जो आचार्य परम्परा दी गयी है, उसमें कुन्दकुन्दाचार्य के पट्टधर शिष्य के रूप में गृद्धपिच्छ (उमास्वामि) का नाम है। डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने पर्याप्त विचारविमर्श के अनन्तर आचार्य कुन्दकुन्द का समय ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग माना है।' अतः कुन्दकुन्द के बाद उनके अन्वय में प्रतिष्ठित आचार्य गृद्धपिच्छ का समय ई. सन् की द्वितीय शताब्दी विद्वानों ने निश्चित किया है।
पण्डित सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता वाचक उमास्वाति को माना है और यह भी कहा है कि उन्होंने स्वयं इस ग्रन्थ पर भाष्य भी लिखा था, जो 'तत्त्वार्थाधिगम' के नाम से जाना जाता है। पं. संघवी जी गृद्धपिच्छ उमास्वाति को वाचक उमास्वाति से भिन्न मानते हैं। पण्डित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने भी चार सूत्रों के विश्लेषण के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता और तत्त्वार्थाधिगम-भाष्य के रचयिता को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध टीकाओं में सर्वार्थसिद्धि नामक टीका को प्राचीन माना गया है। विद्वानों ने सर्वार्थसिद्धि टीका के बाद तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना किया जाना सिद्ध किया है। सभी टीकाकारों ने मूल गृद्धपिच्छकृत तत्त्वार्थसूत्र से ही ग्रहण किये हैं और उन पर अपनी टीकाएं लिखी है। जैसे आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने मूलसूत्रकार का नाम अपनी टीका में नहीं लिया, उसी प्रकार वाचक