Book Title: Studies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Author(s): G C Tripathi, Ashokkumar Singh
Publisher: Bhogilal Laherchand Institute of Indology
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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 245 (ग) उन्होंने इन तत्त्वों का क्रम क्यों बदला?
(घ) क्या उनके द्वारा पुण्य-पाप का समावेश आस्रव या बन्ध में करना उचित है?
चारों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः विचार प्रस्तुत हैं
(क) पदार्थ एवं तत्त्व शब्द जैनदर्शन में एकार्थक हैं। स्वयं उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में 'सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम्' 'एते वा सप्तपदार्थास्तत्त्वानि '25 वाक्यों द्वारा अर्थ, पदार्थ एवं तत्त्व को एकार्थक बतलाया है।
(ख) उमास्वाति ने पुण्य एवं पाप पदार्थ का समावेश आस्रव तत्त्व में किया है, जैसा कि उनके 'शुभः पुण्यस्य' 'अशुभः पापस्य26 सूत्रों से प्रकट होता है। आस्रव के साथ बन्ध तत्त्व में इनका समावेश स्वतः सिद्ध है, क्योंकि, बंधी हुई कर्मप्रकृतियाँ या तो पुण्य रूप होती हैं या पाप रूप। प्रशमरतिप्रकरण के टीकाकार हरिभद्र ने पुण्य एवं पाप का समावेश बन्ध तत्त्व में ही किया है-शास्त्रे पुण्यपापयोर्बन्धग्रहणेनैव ग्रहणात् सप्त संख्या।"
(ग) प्रशमरतिप्रकरण एवं विभिन्न आगमों में तत्त्वों का क्रम जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष के रूप में है। पुण्य-पाप की पृथक् गणना न करने पर इनका क्रम रहता है- जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने आस्रव के पश्चात् बन्ध को रखकर क्रम बदल दिया है। उनके द्वारा ऐसा किया जाना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि कर्म पुद्गलों के आस्रव के अनन्तर बन्ध ही घटित होता है तथा संवर एवं निर्जरा के द्वारा मोक्ष घटित होता है।
(घ) तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य-पाप का समावेश आस्रव एवं बन्ध में करके उन्हें स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में निरूपित नहीं करना अनेक कारणों से उचित प्रतीत नहीं होता, यथा
(i) पुण्य एवं पाप एक-दूसरे के विरोधी हैं। पुण्यकर्म जहाँ सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में सहायक कारण है वहाँ पापकर्म उसमें बाधक है। कर्मसिद्धान्त के अनुसार जब तक पापकर्म की प्रकृतियों का चतुःस्थानिक अनुभाग घटकर द्विस्थानिक नहीं होता और पुण्यप्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतुः स्थानिक नहीं होता तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। इसी प्रकार पुण्यप्रकृतियों का अनुभाग जब तक उत्कृष्ट नहीं होता तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता है। इस दृष्टि से पाप के अनुभाग का घटना एवं पुण्य के अनुभाग का बढ़ना सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में सहायक होने से ये एक-दूसरे के विरोधी सिद्ध