Book Title: Studies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Author(s): G C Tripathi, Ashokkumar Singh
Publisher: Bhogilal Laherchand Institute of Indology
View full book text
________________
18
तत्त्वार्थसूत्र में आत्मा सम्बन्धी तत्त्व
लता बोथरा, कलकत्ता
अति प्राचीन काल से हमारे ऋषियों, मुनियों, विद्वानों और विचारकों की गवेषणा व चिन्तन का मूल विषय आत्मा रहा है। आत्मा रूपी तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से ही दर्शन की उत्पत्ति हुई है। जैन दर्शन का मूलतत्त्व आत्मा ही है। इस दर्शन में बिना वैज्ञानिक साधनों के प्रकृति के रहस्यों का जिस प्रज्ञा द्वारा प्रतिपादन किया गया वह आत्मज्ञान ही था। जैनदर्शन में तत्त्वार्थसूत्र का विशिष्ट स्थान है। यह सूत्र शैली में जैनधर्म और दर्शन से सम्बन्धित सभी पहलुओं को प्रतिपादित करने वाला अद्वितीय ग्रन्थ है, जो संस्कृत में लिखा गया।
तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकार आचार्य उमास्वाति ने सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है, जिसमें जीव प्रथम तत्त्व बताया गया है। यहाँ जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है। जैनदर्शन में जीव का अर्थ चेतन द्रव्य या आत्मा माना गया है। भगवतीसूत्र में गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से आत्मा सम्बन्धी दो प्रश्न किये थे। आत्मा क्या है? और उसका साध्य क्या है? भगवान् ने इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा आत्मा समत्व रूप है और समत्व की उपलब्धि कर लेना यही आत्मा का साध्य है। आचारांगसूत्र में भी समता को धर्म कहा गया हैं। क्योंकि वस्तु स्वभाव ही धर्म है। जैनधर्म में साधक, साध्य और साधना मार्ग तीनों ही आत्मा से अभिन्न माने जाते हैं। आत्मा स्व को ही पूर्ण बनाती है, इस प्रकार आत्मा का साध्य आत्मा ही है। हमारी चेतना के ज्ञान भाव और संकल्प के पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधना मार्ग बन जाते हैं या यह भी कह सकते हैं कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष ही क्रमशः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र बन जाते है। जैनदर्शन के इसी तत्त्व को वाचक