Book Title: Studies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Author(s): G C Tripathi, Ashokkumar Singh
Publisher: Bhogilal Laherchand Institute of Indology
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232 Studies in Umāsvāti
प्रशमरतिप्रकरण में वर्णित बहुत से विषय ऐसे हैं जो तत्त्वार्थसूत्र के पूरक हैं, यथा-दशविध धर्मों, द्वादश भावनाओं, षड्लेश्याओं एवं मुक्ति की प्रक्रिया का जो विस्तृत वर्णन प्रशमरतिप्रकरण में उपलब्ध है वह तत्त्वार्थ में उठी जिज्ञासाओं का शमन करता है। आत्मा के द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग आदि आठ भेद, विनय का महत्त्व, प्रशम-सुख की प्राप्ति का उपाय, कुल-रूप-बल आदि अष्ट मद, चतुर्विध धर्मकथा, अठारह हजार शीलाङ्ग आदि कुछ विषय ऐसे हैं जो प्रशमरतिप्रकरण की पृथक् रचना के वैशिष्ट्य को प्रदर्शित करते हैं। प्रशमरति के कुछ प्रमुख विषयों पर यहाँ विचार किया जा रहा है।
प्रशमरतिप्रकरण में चर्चित कतिपय प्रमुख विषय
कल्प्य और अकल्प्य का विचारः प्रशमरतिप्रकरण के अष्टम ‘भावना' अधिकार में साधु-साध्वी के लिए कल्प्य-. अकल्प्य का विधान करते समय पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र आदिको एक अपेक्षा से कल्प्य प्रतिपादित करते हुए उमास्वाति द्वारा प्रश्न उठाया गया कि भोजन, आश्रय, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने वाले साधु को अपरिग्रही कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान करते हुए उन्होंने कहा कि आहार, शय्या, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा तथा जो कल्प्य (ग्रहण करने योग्य) एवं अकल्प्य (ग्रहण न करने योग्य) का विधान है वह सद्धर्म और देहरक्षा के निमित्त से है
पिण्डः शय्या वस्त्रैषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत्। कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम्।। कारिका, 138
उमास्वाति का मन्तव्य है कि धर्म के उपकरणों को धारण करने वाला साधु भी पङ्क में उत्पन्न कमल की भाँति निर्लेप रह सकता है । साधु के लिए क्या कल्प्य है और क्या अकल्प्य, इसका निरूपण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो ज्ञान, शील और तप का उपग्राहक और दोषों का निग्राहक है वह निश्चय से कल्प्य है तथा शेष सब अकल्प्य है।' इसी तथ्य को उन्होंने प्रकारान्तर से कहा कि जो वस्तु कल्प्य होने पर भी सम्यक्त्व, ज्ञान और शील की उपघातक होती है तथा जिससे जिन प्रवचन की निन्दा होती है वह कल्प्य वस्तु भी अकल्प्य ही है। उमास्वाति प्रतिपादित करते हैं कि देश, काल, क्षेत्र, पुरुष अवस्था, उपघात और शुद्धपरिणामों का विचार करके ही कोई वस्तु कल्प्य होती है, एकान्ततः कोई वस्तु कल्प्य नहीं होती।"