________________
जैन चिन्तन में धर्म का स्वरूप एवं माहात्म्य
डॉ. अशोक कुमार जैन
भारतीय वाङ्मय में धर्म की अनेकों परिभाषाएँ मिलती हैं। किन्तु सभी परिभाषाएँ स्वभाव से भिन्न होते हुए भी एक बात में अवश्य सहमत दिखती हैं कि धर्म की गवेषणा मानव समुदाय के कल्याणार्थ की गयी है। अन्यान्य धर्मों की तरह जैन धर्म में भी धर्म को उसके मूल अर्थ में परिभाषित किया गया है साथ ही धर्म का जैन दर्शन में जो विशेष पारिभाषिक अर्थ है उसका भी यथास्थान विनियोग किया गया है। विद्वान् लेखक ने धर्म को जैन धर्म की विभिन्न परिभाषाओं के आलोक में व्याख्यायित करने का सफल प्रयास किया है। -सम्पादक भारतीय परम्परा में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैदिक साहित्य में धर्म शब्द अनेक अर्थों में व्यवहत हुआ है। अथर्ववेद' में धार्मिक क्रिया संस्कार से अर्जित गुण के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण में सकल धार्मिक कर्तव्यों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् में धर्म की तीन शाखाएँ मानी हैं- यज्ञ अध्ययन दान, तपस्या और ब्रह्मचारित्व। यहाँ धर्म शब्द आश्रमों के विलक्षण कर्त्तव्य की ओर संकेत करता है। तंत्रवार्तिक के अनुसार धर्मशास्त्रों का कार्य है वर्णों और आश्रमों के धर्म की शिक्षा देना। मनुस्मृति के व्याख्याता मेघातिथि के अनुसार स्मृतिकारों ने धर्म के पाँच स्वरूप माने हैं1. वर्ण धर्म 2. आश्रम धर्म 3. वर्णाश्रम धर्म 4. नैमित्तिक धर्म तथा प्रायश्चित तथा 5. गुणधर्म अर्थात् अभिषिक्त राजा के कर्त्तव्य। डॉ. काणे ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में धर्म शब्द का यही अर्थ लिया है। पूर्वमीमांसा सूत्र में जैमिनि ने धर्म को वेद विहित प्रेरक लक्षणों के अर्थ में स्वीकार किया है अर्थात् वेदों में निर्दिष्ट अनुशासनों के अनुसार चलना ही धर्म है। वैशेषिक सूत्रकार ने उसे ही धर्म कहा है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति हो। महाभारत के अनुशासन पर्व में अहिंसा को परमधर्म कहा है और वनपर्व में आनंशस्य को परम धर्म कहा है। मनुस्मृति में आचार को परम धर्म कहा है। इसी तरह बौद्ध साहित्य में धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कहीं-कहीं इसे भगवान् बुद्ध की सम्पूर्ण शिक्षा का द्योतक माना है।