________________
20 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई-सितम्बर 2012 प्राकृत कथाओं की सामग्री भी प्रायः जन-जीवन पर आधारित है, अतः इनमें लोकतत्त्व प्रचुर परिमाण में उपस्थित हैं। जहाँ कहीं भी विद्वानों को लोककथा दिखाई दी, उन्होंने उसे अपनाकर साहित्यिक रूप प्रदान कर दिया और इसी शैली ने प्राकृत कथा साहित्य के विकास को एक नई दिशा प्रदान की। पैशाची प्राकृत में लिखित गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' लोक कथाओं का संग्रह ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि यह कथा ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है किन्तु इसके आधार पर परवर्तीकाल में अनेक प्राकृत कथाएँ लिखी गई हैं। कथ् (वाक्यप्रबन्धे)' धातु से अड्. एवं टाप् होकर 'कथा' शब्द बनता है। कथ्यते इति कथा, जो कही जाती है वह कथा है। भामह के अनुसार संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश की उस रचना को कथा कहते हैं जिसमें न तो वक्त्र अपरवक्त्र छन्द हों और न उच्छ्वास। इसमें किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा नायक के चरित्र का वर्णन होता है। आचार्यों ने कथा को कवि-कल्पित एवं आख्यायिका को ऐतिहासिक-वृत्त प्रधान कहा है। आख्यायिका' की परिभाषा साहित्यदर्पणकार ने इस प्रकार लिखा है कि
आख्यायिका कथावत्स्याकवेवंशादिकीर्तनम्, अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं गद्यं क्वचित् क्वचित् कथांशानां व्यवच्छेद आश्वास इति वध्यते। आर्यावक्त्रापवक्त्राणां छन्दसां येन केनचित्।
__ अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यर्थसूचनम्। अमर-कोशकार' ने 'आख्यायिकोपलब्धार्थप्रबन्धकल्पना कथा' कहा है। कविराज विश्वनाथ ने 'कथा' को इस प्रकार पारिभाषित किया है
__कथायां सरसं वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम् ।
क्वचिदत्र भवेदार्या क्वचिद्ववक्त्रापवक्त्रके ॥ जैन वाड्.मय में कथा के स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। न्यायदीपिका के अनुसार अनेक प्रवक्ताओं के विचार का जो विषय या पदार्थ है, उनके वाक्य-सन्दर्भो का नाम कथा है ।
"नाना प्रवक्तृत्वे सति तद्विचारवस्तुविषया वाक्यसंपदलब्धिकथा।" भारतीय कथा साहित्य के गर्भ में दो उद्देश्य निहित रहते हैं(1) उपदेश तथा (2) मनोरंजन। इसी आधार पर प्राप्त कथा साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है