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26 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई-सितम्बर 2012
साधारणतः कथा-साहित्य का उद्देश्य ज्ञानवर्द्धन अथवा मनोरंजन करना होता है, किन्तु प्राकृत कथा साहित्य के सम्बन्ध में यह बात कही जा सकती है कि इस परम्परा में लिखे गए अधिकांश ग्रन्थों का उद्देश्य मनोरंजन की अपेक्षा किसी उच्चतर सामाजिक, नैतिक अथवा आध्यात्मिक मूल्य की प्रतिष्ठा करना रहा है। प्रायः प्रत्येक कथा चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका मुख्य उद्देश्य अशुभ कर्मों के कटु - परिणाम बताकर मानव को त्याग, सदाचार अथवा व्रताचार की सत्प्रेरणा प्रदान करना है।
इस प्रकार आगम काल में प्रतीकों, रूपकों और उपमानों के आधार पर आविर्भूत प्राकृत कथाओं का आगमोत्तर काल में पर्याप्त विकास हुआ। टीकायुग की कथाओं की विशिष्ट प्रवृत्ति नीतिपरकता है । आगम साहित्य की कथाएँ प्रायः धार्मिकता से अभीभूत थी। लेकिन टीका युगीन कथाओं में मनोरंजन को भी स्थान दिया गया है।
भगवान् महावीर के द्वारा उपदेशित लिपिबद्ध प्राकृत वाङ्मय में जन-जन को सरल, सात्विक, शालीन, अभिमानरहित, प्रदर्शनरहित सहज जीवन जीने की प्रेरणा, दुःखित, पीड़ित तथा संकट - ग्रस्त प्राणियों, वृद्धों, रोगियों, अभाव पीड़ितों को सहयोग करने का उनकी सेवा करने का सन्देश प्रदान किया गया है। विश्व - मानव को व्यक्ति, जाति, समाज तथा राष्ट्र इत्यादि के परिपार्श्व में पनपने वाली संकीर्णताओं से ऊँचे उठकर विश्वमैत्री, ऐक्य, समता एवं सौहार्दपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा दी, दूसरों के स्वत्वों, अधिकारों का हरण न करने, दम्भ, माया, छल, कपट, धोखा, जालसाजी, असत्य, वैमनस्य, द्वेष आदि दुर्गुणों से बचने, किसी के भी साथ शत्रुभाव न रखने तथा किसी से भी घृणा न करने का आग्रह किया।
प्राकृत साहित्य में मानव जीवन की महत्ता और उपादेयता के बारे में कहा गया है कि मानव रूपी इस अमूल्य धरोहर को मूर्खतावश व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए। इसी के साथ जीवन की क्षणभंगुरता बताते हुए कहा गया है कि मनुष्य मात्र को क्षण भर भी प्रमाद न करने का कर्त्तव्य-बोध दिया। इसके अतिरिक्त अहिंसा, संयम, क्षमा, विनय, समता भाव, विनय, सहिष्णुता और सदाचार रूपी वैश्विक मल्यों के माध्यम से समझाया गया है।
अहिंसा
समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है, अहिंसा निउणं दिट्ठा