Book Title: Sramana 2012 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ 10 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई-सितम्बर 2012 आकाश को द्रव्य रूप में प्रायः सभी दर्शनों ने स्वीकार किया है, किन्तु आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश भेद जैनेतर दर्शनों में प्राप्त नहीं होते। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों में 'शब्द' को आकाश द्रव्य का गुण माना गया है 'शब्दगुणकमाकाशम्', जबकि जैनदर्शन में आकाश का गुण अवगाहन करना माना गया है। शब्द को तो पुद्गल द्रव्य में सम्मिलित किया गया है। वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को द्रव्य माना जाता है। इनमें से आकाश, काल एवं आत्मा को तो पृथक् द्रव्य के रूप में जैन दार्शनिकों ने भी अंगीकार किया है, किन्तु पृथ्वी, अप्, तेजस् एवं वायु की पृथक् द्रव्यता मानने का जैनदर्शनानुसार कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि वे सजीव होने पर जीव द्रव्य में और निर्जीव होने पर पुद्गल द्रव्य में समाहित हो जाते हैं। दिशा कोई पृथक् द्रव्य नहीं है वह तो 'आकाश' की ही पर्याय है। मन को जैन दार्शनिकों ने पुद्गल में सम्मिलित किया है। आगमों में पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय का विस्तार से निरूपण मिलता है। पुद्गल द्रव्य में 'परमाणु' का विवेचन महत्त्वपूर्ण है। परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी स्वतंत्र इकाई है। परमाणु का जैसा वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है वह आश्चर्यजनक है। एक परमाणु दूसरे परमाणु से आकार में तुल्य होकर भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श में भिन्न होता है। कोई काला, कोई नीला आदि वर्ण का होता है। कोई एकगुण काला, कोई द्विगुण काला आदि होने से भी उनमें भेद होता है। परमाणु की अस्पृशद्गति अद्भुत है। इस गति के कारण परमाणु एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सकता है।24 जैनदर्शन के ग्रन्थों में आगे चलकर 'अस्तिकाय' के स्थान पर द्रव्य शब्द का ही प्रयोग हो गया तथा वस्तु या सत् की व्याख्या 'द्रव्यपर्यायात्मक' स्वरूप से की जाने लगी। किन्तु आगमों में अस्तिकाय एवं द्रव्य के स्वरूप में किंचिद् भेद रहा है।

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