Book Title: Sramana 2012 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ 14 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 3 / जुलाई-सितम्बर 2012 नहीं होता है। इस तरह यह जीव संसार में भ्रमण किया करता है। अण्णा ते भयवंत बुह जे परभाव चयंति। लोयालोय-पयासयरू अप्पा विमल मुणंति॥12 अर्थात् जो परभावों का त्याग करते हैं और लोकालोक प्रकाशक निर्मल अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे भगवान ज्ञानी महात्मा धन्य है। सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एवं तव कार्यः। सुखितस्य तदाभिवृद्धयै दुःखभुजस्तदुपधातायि॥3 अर्थात् हे जीव! सुख दुःख दोनों अवस्था में तेरा एक मात्र धर्म ही शरण है। अतः तू एक धर्म का ही सेवन कर। वह धर्म तेरे लिए सुख की वृद्धि का कारण एवं दुःख नाश का कारण होगा। धर्मः सुखस्य हेतुर्हेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य। तस्मात् सुखभर्गाधया माभूत्धर्मस्य विमुखस्त्वम् ॥4 अर्थात् धर्म सुख का कारण है और कारण अपने कार्य का विरोधी नहीं होता है अतः तू सुखनाश के भय से धर्म से विमुख मत हो। धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु। बीजादवाप्तधान्यः कृषीबलस्तस्य बीजमिव॥15 अर्थात् जिस प्रकार किसान बीज से उत्पन्न धान्य (गेहूँ तथा चावल) आदि को प्राप्त करता है। उसी प्रकार हे भव्य! तूने जो सुख सम्पत्ति प्राप्त की है वह सब धर्म का ही फल है अतः तू भी उक्त सुख का बीजभूत उस धर्म का संरक्षण करके ही उसका उपभोग कर। संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिंतामणेरपि। असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्तये॥6 अर्थात् लोक में कल्पवृक्ष प्रार्थना के अनुसार अभीष्ट फल देता है। चिंतामणि मन की कल्पना के अनुरूप फल देता है किन्तु धर्म एक ऐसा अपूर्व पदार्थ है जिसके लिए न कभी याचना न कभी मन में कल्पना करनी पड़ती है। साम्राज्यं कथमप्यवाप्य सुचिरात्संसारसारं पुनः तत्त्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवराः प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम्। त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर त्याज्यान् गृहीत्वापि ते। मा भूभौतिक मोदक व्यतिकरं संपाद्य हस्यास्पदम् ॥7 अर्थात् जब तीर्थकर चक्रवर्ती भी सब ऐश्वर्य को त्याग करके ही मुक्ति स्त्री को वरण करते हैं तब सामान्य मनुष्य का तो कहना ही क्या? अतः मुमुक्षुजन कीचड़ में पैर धोने की अपेक्षा कीचड़ में फंसे मात्र धर्म की शरण लें तभी

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