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जैन चिन्तन में धर्म का स्वरूप एवं माहात्म्य : 15 सुख मिलेगा। परिग्रह में कभी न सुख मिला है न मिलेगा। अतः परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग करना ही सुखकारी है, अन्यथा दुःख ही दुःख है। जिस प्रकार तराजू के एक पलड़े को सोना, चांदी रत्न आदि से भर दें और एक पलड़े को खाली रखें, दोनों पलड़े उठाने पर खाली पलड़ा ऊपर जायेगा। उसी प्रकार निस्पृही संत ऊपर ही जायेंगे। क्योंकि कोई घोर तप करते हैं। खूब उपवास भी कर रहे हैं फिर भी यदि वे परिग्रह रखते हैं तो उन्हें सच्चे मुनि नहीं कह सकते।
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोभ॑दा द्विधा च त्रयं। रत्नानां परमं तथा दर्शावधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः॥ मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागङ्गसंगोज्झिता।
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते॥8 अर्थात् प्राणियों के ऊपर दयाभाव रखना, यह धर्म का स्वरूप है। वह धर्म गृहस्थ (श्रावक) और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एक सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का तथा उत्तम क्षमा आदि के भेद से दस प्रकार का भी है। परन्तु निश्चय से तो मोह के निमित्त से उत्पन्न होने वाले मानसिक विकल्पसमूह से तथा वचन एवं शरीर के संसर्ग से रहित जो शुद्ध आनन्दरूप आत्मा की परिणति होती है उसे ही 'धर्म' इस नाम से कहा जाता है।
प्राणियों के ऊपर दया करना, रत्नत्रय का धारण करना तथा उत्तम क्षमादि रूप दस धर्मों का पालन करना यह सब व्यवहार धर्म का स्वरूप है। निश्चय धर्म तो शुद्ध आनन्दमय आत्मा की परिणति को कहा गया है।
शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्र कालादिहेतौ लब्ध्वा स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्राविशेषम्।
आत्मा धर्मों यदममसुखस्फीतसंसारगर्ता
दृद्धृत्य सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव॥'' अर्थात् कर्म के उपशान्त होने के साथ योग्य समस्त क्षेत्र-कालादिरूप सामग्री के प्राप्त हो जाने पर केवल ध्यानमुद्रा से संयुक्त स्वास्थ्य (आत्मरूपस्थता) को जिस किसी प्रकार से प्राप्त करके चूंकि यह आत्मा दुःखों से परिपूर्ण संसाररूपी गड्ढे से अपने को निकालकर अपने आप ही सुखम् पद अर्थात् मोक्ष में धारण कराता है अतएव वह आत्मा ही धर्म कहा जाता है।