Book Title: Sramana 2012 07
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ जैन चिन्तन में धर्म का स्वरूप एवं माहात्म्य : 13 जैन परम्परा में धर्म शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत हुआ है। धर्म का प्राचीनतम लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार में मिलता है चारितं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ चारित्र ही धर्म है। यह मनुस्मृति के 'आचारः परमो धर्मः' से मिलता हुआ है। किन्तु मनुस्मृति के आचार रूप परम धर्म में और आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र में बहुत अन्तर है। आचार केवल क्रियाकाण्डरूप हैं किन्तु चारित्र उसकी निवृत्ति से प्रतिफलित आन्तरिक प्रवृत्ति रूप है। धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है। इसका अर्थ है धारण करना धारतीति धर्मः। धर्म शब्द की व्युत्पत्तिपरक इस व्याख्या के अनुसार धर्म वह कर्त्तव्य है जो प्राणीमात्र के ऐहिक और पारलौकिक जीवन पर नियंत्रण स्थापित कर सबको सुपथ पर ले चलने में सहायक होता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार - 'संसार दु:खःसत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे'0' अर्थात् जो उत्तमसुख में धरता है वह धर्म है। जैसे किसी वस्तु को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर धरना। उसी तरह जो जीवों को संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में धरता है वह धर्म है। इसमें धारणवाली बात भी आ जाती है। जब कोई धर्म को धारण करेगा तभी तो वह उसे संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में धरेगा कैसे? क्योंकि उत्तम सुख को प्राप्त करने के लिए संसार के दुःखों से छुटकारा आवश्यक है और संसार के दु:खों से छूटने के लिए उन दुःखों के कारणों से छूटना आवश्यक है। अतः जो संसार के दुःखों के कारणों को मिटाने में समर्थ है वही धर्म है। अज्ञान तथा तृष्णा के कारण यह जीव अनादि से चार गति रूप संसार में भ्रमण करता आया है। जब तक वह आत्महित को नहीं पहचानेगा, तब तक सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं करेगा तथा भ्रमण का चक्र प्रवाहमान रहेगा। बुद्धिमान मानव को अपने आत्मा के ऊपर करुणाभाव लाकर उसको जन्म, जरा, मरणादि दुःखों से बचाने के लिए धर्म की शरण लेना चाहिए। आचार्य योगीन्दुदेव के अनुसार आउ गलइ णवि मणु गल णवि आसा हु गलेइ। मोहु फुरइ णवि अप्प हिउ इम संसार भमेइ ॥1 अर्थात् आयु गलती जाती है परन्तु मन नहीं गलता है और न आशा तृष्णा ही गलती है। मोहभाव फैलता रहता है किन्तु अपने आत्मा का हित करने का भाव

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90