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८. मथुरा, प्राकृत, पृ०-१८, क्रमांक-१६, 'नमो अरहतो महाविरस' ९. मथुरा, प्राकृत, हुविष्क संवत् ३९- हस्तिस्तम्भ पृ०-३४, क्रमांक ४३, 'अय्येन
रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। १०. मथुरा, प्राकृत, भग्न, वर्ष ९३, पृ०-४६, क्रमांक-६७, 'नमो अर्हतो
महाविरस्य' ११. मथुरा, प्राकृत, वासुदेव सं०-९८, पृ०-४७, क्रमांक-६०, 'नमो अरहतो
महावीरस्य' १२. मथुरा, प्राकृत, पृ०-४८९ (बिना काल निर्देश) क्रमांक ७१, 'नमो अरहंतानं
सिहकस' १३. मथुरा, प्राकृत, भग्न (बिना काल निर्देश) पृ०-४८, क्रमांक-७२, 'नमो
अरहताना' १४. मथुरा, प्राकृत, भग्न (बिना काल निर्देश) पृ०-४८, क्रमांक-७३ 'नमो
अरहंतान' १५. मथुरा, प्राकृत, भग्न (बिना काल निर्देश), पृ०-४९, क्रमांक-७५, 'अरहंतान
वधमानस्य १६. मथुरा, प्राकृत, भग्न, पृ०-५१, क्रमांक-८०, 'नमो अरहंताण...'
शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहाँ के शिलालेखों में दूसरी, तीसरी शती तक 'नकार' के स्थान पर 'णकार' एवं मध्यवर्ती असंयुक्त 'त' के स्थान पर 'द' के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि 'नकार' प्रधान अर्धमागधी का चलन तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् ई०पू० तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम प्राचीन हैं, आगमों का शब्द-रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में हुआ है। दिगम्बर मान्य आगमों की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर परन्तु अपनी विषयवस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पांचवी शती के पूर्व की नहीं है।
यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा की तीसरी-चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों नहीं मिलता है? अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बडली का अभिलेख और मथुरा के शताधिक
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