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खजुराहो की कला
इसी प्रसंग में खजुराहो के हिन्दू मन्दिरों में दिगम्बर जैन श्रमणों का जो अंकन है वह भी पुनर्विचार की अपेक्षा रहता है। डॉ. लक्ष्मीकांत त्रिपाठी ने 'भारती वर्ष 1959-60 के अंक | में अपने लेख "The Erotic Scenes of Khajuraho and their Probabla explanation" में इस सम्बन्ध में भी एक प्रश्न उपस्थित किया है। खजुराहो जगदम्बी मन्दिर में एक दिगम्बर जैन श्रमण को दो कामुक स्त्रियों से घिरा हुआ दिखाया गया है। लक्ष्मण मन्दिर के दक्षिण भित्ति में दिगम्बर जैन श्रमण को पशुपाशक मुद्रा में एक स्त्री से सम्भोगरत बताया गया, मात्र यही नहीं उसकी पाद-पीठ पर "श्री साधु नन्दिक्षपणक" ऐसा लेख भी उत्कीर्ण है। इसी प्रकार जगदम्बी मन्दिर की दक्षिण भित्ति पर एक क्षपणक (दिगम्बर जैन मुनि) को उत्थित-लिंग दिखाया गया है, उसके समक्ष खड़ा हुआ भागवत संन्यासी एक हाथ से उसका लिंग पकड़े हुए है, दूसरा हाथ मारने की मुद्रा में है, जबकि क्षपणक हाथ जोड़े हुए खड़ा है। प्रश्न यह है कि इस प्रकार के अन्य अंकनों का उद्देश्य क्या था ? डॉ. त्रिपाठी ने इसे जैन श्रमणों की विषय-लम्पटता और समाज में उनके प्रति आक्रोश की भावना माना है। उनके शब्दों # "The Penis erectus of the Kshapanaka is suggestive of his licentious character and lack of control over Senses which appears to have been in the root of all these conflicts and opposition" (Bharti, 1959-60 No. 3, Page 100)
किन्त मैं यहाँ डॉ. त्रिपाठी के निष्कर्ष से सहमत नहीं हूँ। मेरी दृष्टि में इसका उद्देश्य जैन श्रमणों की समाज में जो प्रतिष्ठा थी उसे नीचे गिराना था। प्रो. त्रिपाठी ने जैन श्रमणों की विषय-लम्पटता के अपने निष्कर्ष की पुष्टि के लिए "प्रबोधचन्द्रोदय" का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया जिसमें जैन क्षपणक (मुनि) के मुख से यह कहलवाया है --
दूरे चरण प्रणामः कृतसत्कारं भोजनं च मिष्टम्। ईयामलं न कार्य ऋषिणां दारान् रमणमाणानाम् ।।
अर्थात, ऋषियों की दूर से चरण वंदना करनी चाहिए, उन्हें सम्मान पूर्वक मिष्ट भोजन करवाना चाहिए और यदि वे स्त्री से रमण भी करें तो भी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
प्रो. त्रिपाठी का यह प्रमाण इसलिए लचर हो जाता है कि यह भी विरोधी पक्ष ने ही प्रस्तुत किया है। प्रबोधचन्द्रोदय नाटक का मुख्य उद्देश्य ही जैन-बौद्ध श्रमणों को पतित तथा कापालिक (कौल) मत की ओर आकर्षित होता दिखाना है। वस्तुतः ये समस्त प्रयास जैन श्रमणों की सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के निमित्त ही थे। यह सत्य है कि इस युग में जैन श्रमण अपने निवृत्तिमार्गी कठोर संयम और देह तितीक्षा के उच्च आदर्श से नीचे उतरे थे। संघ रक्षा के निमित्त वे वनवासी से चैत्यवासी (मठवासी) बने थे। तन्त्र के बढ़ते हुए प्रभाव से जन-साधारण जैनधर्म से विमुख न हों जायें -- इसलिए उन्होंने भी तन्त्र, चिकित्सा एवं ललितकलाओं को अपनी परम्परा के अनुरूप ढाल कर स्वीकार कर लिया था। किन्तु वैयक्तिक अपवादों को छोड़कर, जो हर युग और हर सम्प्रदाय में रहे हैं, उन्होंने वाममार्गी आचार- विधि को कभी मान्यता नहीं दी। जैन श्रमण परम्परा वासनापूर्ति की स्वछन्दता के
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