Book Title: Sramana 1994 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 94
________________ 220 नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन (चर्तुदशपूर्वधर),स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूति विजय के शिष्य थे।).आर्य सहस्ति, सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन्न, आयसिंहगिरि, आर्यवज, आर्य वज़सेन, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, आर्य ज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपालित, आर्यभद्र (गौतमगोत्रीय) आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, षांडिल्य (सम्भवतः स्कंदिल, जो माथुरी वाचना के वाचना प्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पाँच नाम और आते हैं।3 ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. 980 अर्थात विक्रम सं. 510 में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठीं शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं -- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरे आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब शेष दो रहते हैं-- 1. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र। इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं ? क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं ? नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैं -- 1. नियुक्तियाँ उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनो सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति गाथाएँ उद्धृत है, अपितु उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन करने का निर्देश भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से पूर्व हो चुकी थी। 4 यदि मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित हुई थीं। चूँकि परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है। अतः नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती हैं, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा में हुए, अपितु लगभग उसीकाल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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