Book Title: Sramana 1994 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ प्रो. सागरमल जैन 241 कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो। आज उपलब्ध विभिन्न श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से शौरसेनी का एवं विशेषरूप से महाराष्ट्री का प्रभाव आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी है जिनमें लगभग 60 प्रतिशत शौरसेनी एवं 40 प्रतिशत महाराष्ट्री. पायी जाती है -- जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार का प्रथम संस्करण, ज्ञातव्य है कि परवर्ती संस्करणों में शौरसेनीकरण अधिक लिया गया है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान एक महत्त्वपूर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी ग्रन्थों में जब अर्द्धमागधी आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप में न देकर उनका शौरसेनी रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री रूपान्तरण कर दिया गया। उदाहरण के रूप में भगवतीआराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अद्धमागधी रूप में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने शौरसेनी प्राकृत के "यापनीय-तन्त्र" नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा" में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी आगम हो या शौरसेनी आगम, उनके उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णतः अर्द्धमागधी है और न ही शौरसेनी। अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा परवर्ती है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम तुल्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है। आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न भी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगम जैसे -- आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ किया है। क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में "लोय" और "लोग" या "आया" और "आता" दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके लोप की प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148