Book Title: Sramana 1994 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 85
________________ प्रो. सागरमल जैन 1. आवश्यकनिर्युक्ति की गाथा 764 से 776 तक में वज्रस्वामी के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है 34 । ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे । 2. इसीप्रकार पिण्डनिर्युक्ति की गाथा 498 में पादलिप्ताचार्य का एवं गाथा 503 से 505 में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपक शाखा 37 का उल्लेख भी है ये तथ्य यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनिर्युक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा ब्रह्मदीपक शाखा की उत्पत्ति ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से परवर्ती हैं। 35 36 13 211 3. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा 120 में कालकाचार्य 38 की कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वघर भद्रबाहु से लगभग तीनसौ वर्ष पश्चात् हुए हैं । 4. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया गया है 39 ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है। 40 यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं । किन्तु मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दसपूर्वधर को नमस्कार करे, यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनिर्युक्ति की गाथा 769 में दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है41, वह तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है । 5. पुनः आवश्यकनिर्युक्ति की गाथा 763 से 774 में यह कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के हास को देखकर आर्य रक्षित ने, वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया। 42 यह कथन भी एक परवर्ती घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों के कर्त्ता चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु है। 6. दशवैकालिकनिर्युक्ति 13 की गाथा 4 एवं ओघनियुक्ति 14 की गाथा 2 में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूँगा ऐसा उल्लेख है । यह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है। 7. आवश्यक नियुक्ति 45 की गाथा 778 - 783 में तथा उत्तराध्ययनं नियुक्ति 46 की गाथा 164 से 178 तक में 7 निह्नवों और आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है । अन्तिम सातवाँ निह्नव वीरनिर्वाण संवत् 584 में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण संवत् 609 में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु के लगभग चार सौ वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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