Book Title: Sramana 1994 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 70
________________ 196 ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचायें : एक अध्य पुनः ऋग्वेद में वृषभ का रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि के साथ जो समीकरण किया गया है । इतना अवश्य बताता है कि यह समीकरण परवर्ती काल में प्रचलित रहा। 6ठीं शती से ले 10वीं शती के जैन साहित्य में जहाँ ऋषभ की स्तुति या उसके पर्यायवाची नामों का उल्लेख उनमें ऋषभ की स्तुति इसी रूप में की गयी। ऋषभ के शिव, परमेश्वर, शंकर, विधाता । नामों की चर्चा हमें जैन परम्परा के प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र में भी मिलती है। __ ऋग्वेद में उपलब्ध कुछ ऋचाओं की जैन दृष्टि से ऋषभदेव के प्रसंग में व्याख्या करने के हमने प्रयत्न किया है। विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे इन ऋचाओं के अर्थ को देखें और निश्चित करें कि इस प्रयास की कितनी सार्थकता है। यद्यपि मैं स्वयं इस तथ्य से सहमत हूँ। इन ऋचाओं का यही एक मात्र अर्थ है ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। अग्रिम पंक्तियों में के ऋचाओं का जैन दृष्टिपरक अर्थ प्रस्तुत है। मेरी व्यस्तताओं के कारण वृषभवाची सभी 11, ऋचाओं का अर्थ तो नहीं कर पाया हूँ मात्र दृष्टि-बोध के लिये कुछ ऋचाओं की व्याख्या प्रस्तु है। इस व्याख्या के सम्बन्ध में भी मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि इन ऋचाओं के जे विभिन्न लाक्षणिक अर्थ सम्भव हैं उनमे एक अर्थ यह भी हो सकता है। इससे अधिक मेरा कोई दावा नहीं है। ऋषभ वाची ऋग्वैदिक ऋचाओं की जैन दृष्टि से व्याख्या असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम् ।। (1.9.4) हे इन्द्र ! ( अजोषा) जिन्होंने स्त्री का त्याग कर दिया है, उन ऋषभ ( पतिम् ) स्वामा का प्रति आपकी जो अनेक प्रकार की वाणी (स्तुति) है, वह आपकी (भावनाओं) को उत्तमता पूर्वक अभिव्यक्त करती है। (ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में इन्द्र ही सर्वप्रथम जिन की स्तुति करता है - शक्रस्तव (नमोत्थुणं) का पाठ जैनों में सर्व प्रसिद्ध है) त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतसचे भवसि वाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुग्ने विश अविवाससि ।। (1.31.5) हे ज्योतिस्वरूप वषभ ! आप पुष्टि करने वाले हैं जो लोग होम करने के लिए तत्पर है उनके लिए आ करके आप सुनने योग्य हैं अर्थात् उन्हें आहूत होकर आपके विचारों को जानना चाहिए। आप का उपदेश जानने योग्य है क्योंकि उसके आधार पर उत्तम क्रियायें की जा सकती हैं। आप एकायु अर्थात् चरम शरीरी हैं और तीर्थंकरों में प्रथम या अग्र हैं और प्रजा आप में ही निवास करती है अर्थात् आप की ही आज्ञा का अनुसरण करती है। ज्ञातव्य है - वैदिक दृष्टि से अग्नि के लिये एकायु एवं अग्र विशेषण का प्रयोग उतना समीचीन नहीं है जितना वृषभ तीर्थंकर के साथ है। उन्हें एकायु कहने का तात्पर्य यह है कि जिनका यही अन्तिम जीवन है। दूसरे प्रथम तीर्थंकर होने से उनके साथ अग्र विशेषण भी उपयुक्त है] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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