Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ 22 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा कानने में कोई बाधा नहीं है कि उस युग में किसी न किसी रूप में भक्ति की अवधारणा भी उपस्थित थी। यदि हम वैदिक साहित्य की ओर मुड़ते हैं, तो उसमें भी जो ऋग्वेदादि प्राचीन स्तर के ग्रन्थ हैं, उनमें चाहे मूर्ति-पूजा या विग्रह-पूजा का निर्देश नहीं हो, किन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वहां भक्ति की अवधारणा पूर्णतया अनुपस्थित है। क्योंकि ऋग्वेद के सूक्तों में भी स्तुति सम्बन्धी सूक्त ही सर्वाधिक है। स्तुति के साथ भी पूज्य-बुद्धि और श्रद्धा का तत्त्व तो जुड़ा ही होता है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि वैदिक काल में चाहे विग्रह-पूजा या मूर्ति-पूजा न रही हो, किन्तु श्रद्धा व स्तुति के रूप में उसमें भक्ति का तत्त्व तो है ही। आगे चलकर औपनिषदिक काल और विशेष रूप से गीता के रचनाकाल में तो हमें भक्ति की एक सुस्थापित परम्परा उपलब्ध होती है। गीता में जिन योगों (साधना-विधियों) की चर्चा मिलती है, उसमें भक्तियोग सबसे महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि गीता की ज्ञानयोग परक एवं कर्मयोग परक व्याख्याएँ भी की गयीं, किन्तु यदि हम गीता की अन्तरात्मा में झांककर देखें तो लगता है कि उसमें भक्ति या समर्पण भाव ही एक केन्द्रीय तत्त्व है। कर्म की निष्कामता का आधार भी कर्म-फल की आकांक्षा का प्रभु के प्रति समर्पण ही है। यह बात अलग है कि गीता ज्ञान एवं कर्म को भी समान रूप से महत्त्व देती है, किन्तु उसमें इन्हें भी भक्ति के कारण व कार्य के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान, जो कि गीता के ज्ञानयोग का प्रतिपाद्य है, अन्ततोगत्वा प्रभु के प्रति अनन्य निष्ठा में परिणित होता है। दूसरी ओर गीता यही कहती है कि श्रद्धावान ही प्रभु के ज्ञान को प्राप्त होता है (४/३६) पुनः गीता का कर्मयोग भी वस्तुतः परमात्मा के प्रति न केवल कर्मफल का पूर्ण समर्पण है अपितु समर्पित भाव से उसके आदेशों का परिपालन भी है। गीता लोकसेवा को भी प्रभु की सेवा में अफ़्रभावित कर कर्मयोग को भक्तियोग बना देती है। गीता में ज्ञान वह है जिससे भक्ति की धारा प्रसूत होती है और कर्म उस भक्ति की व्यापक बाह्याभिव्यक्ति है। यही कारण रहा कि रामानुज, वल्लभ आदि भक्तिमार्गी आचार्यों ने गीता की भक्ति परक व्याख्या प्रस्तुत की। अतः हम यह कह सकते हैं कि भारत में प्रारम्भिक काल से लेकर सूर व तुलसी के माध्यम से आधुनिक काल तक भक्ति की एक अजस्र धारा प्रवाहित होती रही है और जैन परम्परा भी इससे प्रभावित होती रही है। जैनधर्म में भक्ति जैनदर्शन में भक्ति की अवधारणा के विकास को समझने के लिए भक्ति के भारतीय परिप्रेक्ष्य को समझना आवश्यक है, क्योंकि जैनधर्म में भक्ति का जो विकास हुआ वह इन समसामयिक परिस्थितियों से अप्रभावित नहीं रहा है। जैनधर्म की भक्ति साधना में अन्य परम्पराओं से आये तत्त्व आज इस तरह आत्मसात् हो गये हैं कि आज उन्हें अलग कर पाना भी कठिन है। जैनधर्म में साहित्यिक साक्ष्य के रूप में जो प्राचीनतम सन्दर्भ उपलब्ध है, वे आचारांग; सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन पर आधारित हैं। इनमें आचारांग एवं सूत्रकृतांग में भक्ति तत्त्व अनुपस्थित है आचारांग मात्र यह बताता है कि मेरी आज्ञा का पालन धर्म है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136