Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 63
________________ नका कालके सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यान साधना का कोई विशिष्ट मिल नहीं कहा गया है। किन्तु जहां तक मुनि समाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन में सामान्य से मध्याह्न और मध्यरात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है।' भासकदशांग में सकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का निर्देश है। कहीं कहीं तःकाल और सन्ध्याकाल में भी ध्यान करने का विधान मिलता है। शान की समयावधि * जैन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है कि किसी सक्ति की चित्त वृत्ति अधिकतम कितने समय तक एक विषय पर स्थिर रह सकती है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है कि किसी एक विषय पर अखण्डित रूप से चित्त वृत्ति अन्तर्मुहूर्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकती। अन्तर्मुहूर्त से उनका तात्पर्य एक क्षण से कुछ वधिक तथा ४८ मिनट से कुछ कम है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक नहीं किया जा सकता है। यह सत्य है कि इतने काल के वात् ध्यान खण्डित होता है, किन्तु चित्तवृत्ति को पुनः नियोजित करके ध्यान को एक हर या रात्रिपर्यंत भी किया जा सकता है। मोन और शरीर रचनाऔर जैन आचार्यों ने ध्यान का संबंध शरीर से भी जोड़ा है। यह अनुभूत तथ्य है कि ल, स्वस्थ और सुगठित शरीर ही ध्यान के लिए अधिक योग्य होता है। यदि शरीर ल है, सुगठित नहीं है तो शारीरिक गतविधियों को अधिक समय तक नियन्त्रित नहीं या जा सकता है और यदि शारीरिक गतिविधियां नियंत्रित नहीं रहेंगी तो चित्त भी मन्त्रित नहीं रहेगा। शरीर और चित्तवृत्तियों में एक गहरा संबंध है। शारीरिक विकलताएं सको विकल बना देती हैं और चैत्तसिक विकलताएं शरीर को। अतः यह माना गया है ध्यान के लिए सबल निरोग और सुगठित शरीर आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र में तो ध्यान परिभाषा देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि उत्तम संहनन वाले का एक विषय अंतकरण की वृत्ति का नियोजन ध्यान है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि छः प्रकार की सीरिक संरचना में से वज्रर्षभनाराच, अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच और अर्धनाराच ये चार रीरिक संरचनाएं ही (संहनन) ध्यान के योग्य होती हैं। यद्यपि हमें यहां स्मरण रखना हिए कि शारीरिक संरचना का सहसंबंध मुख्य रूप से प्रशस्त ध्यानों से ही है, अप्रशस्त १) उत्तराध्यन सूत्र २६।१२ २) उपासकदशांग ८।१८२ ३) उत्तमसंहननस्यैकाग्रचित्त निरोधो ध्यानम्। तत्त्वार्थसूत्र-९.२६ ४) तत्त्वार्थ स्वोपज्ञ भाष्य, उमास्वाति ९।२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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