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आकर्षण देखा जाता है। क्योंकि वे भौतिक आकांक्षाओं के कारण जीवन में जो तनाव गये हैं, उससे मुक्ति चाहते हैं। आज भारतीय योग और ध्यान की साधना पद्धतियों अपने-अपने ढंग से पश्चिम के लोगों की रुचि के अनुकूल बनाकर विदेशों में निक किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तना को समाप्त करने की जो शक्ति रही हुई है उसके कारण भोगवादी और मानसिक तनावों संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैत्तसिक शान्ति का अनुभव करते हैं और यही कारण है। उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। इन साधना पद्धतियों का अभ्या कराने के लिए भारत से परिपक्व एवं अपरिपक्व दोनों ही प्रकार के गुरु विदेशों की या कर रहे हैं। यद्यपि अपरिपक्व, भोगाकांक्षी तथाकथित गुरुओं के द्वारा ध्यान और यो साधना का पश्चिम में पहुंचना भारतीय ध्यान और योग परम्परा की मूल्यवत्ता एवं प्रतिष्ठ दोनों ही दृष्टि से खतरे से खाली नहीं है। आज पश्चिम में भावातीत ध्यान, साधना भकि वेदान्त, रामकृष्ण मिशन आदि के कारण भारतीय ध्यान एवं योग साधना के प्रति लोकप्रियता बढ़ी, वही रजनीश आदि के कारण उसे एक झटका भी लगा है। आज श्री चित्तमुनिजी, आचार्य सुशीलकुमारजी, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल आदि ने जैन ध्यान और साधनाविधि से पाश्चात्य देशों में बसे हुए जैनों को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन समणियों ने भी विदेशों में जाकर प्रेक्षाध्यान विधि से उन्हें परिचित कराया है। यद्यर्थि इनमें कौन कहां तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न है। क्योंकि सभी के अपने अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन विधि सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व-पश्चिम में विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्रसाधना से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी उसी प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरा बना रहेगा और लोगों की उससे आस्था उठ जावेगी। ध्यान एवं योग संबंधी शोध कार्य
इस युग में गवेषणात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी साहित्य को लेकर पर्याप्त शोधकार्य हुआ है। जहां भारतीय योग साधना और पतञ्जलि के योगसूत्र पर पर्याप्त कार्य हुए हैं, वहीं जैनयोग की ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। ध्यानशतक, ध्यानस्तव, ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग संबंधी ग्रंथों की समालोचनात्मक भूमिका और हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयत्न कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों का स्वतंत्र रूप से तथा चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अगला चरण है। पं. सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र', अहंतदास बंडबोध
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