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प्रो. सागरमल जन
अप्रमाद अकर्म है। 51 ऐसा कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रयता वह तो सतत् जागरुकता है। अप्रमत्त अवस्था या आत्म जागृति की दशा में क्रियाशीलता अकर्म हो जाती है, जबकि प्रमत्त दशा या आत्म-उ - जागृति के अभाव में निष्क्रियता भी (बन्धन) बन जाती है। वस्तुतः किसी क्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय-भावों एवं राग-द्वेष की स्थिति पर निर्भर है। जैन दर्शन अनुसार, राग-द्वेष एवं कषाय (जो कि आत्मा की प्रमत्त दशा हैं) ही किसी क्रिया को कर्म देते हैं, जबकि कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म अकर्म बन जाता है महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि - जो आसव या बन्धन कारक क्रियाएँ हैं, वे अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति का साधन बन जाती है। 52 इस प्रकार विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्ति निर्भर होते हैं ।
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ईयापथिक कर्म और साम्परायिक कर्म५३
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जैन दर्शन में बन्धन की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है (1 ईर्यापथिक क्रियाएँ (अकर्म) और (2) साम्प्ररायिक क्रियाएँ (कर्म) । ईर्यापथिक क्रियाएँ निष्क वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक नहीं हैं और साम्परायिक किया आसक्त व्यक्ति की क्रियाएँ हैं, जो बन्धनकारक हैं। संक्षेप में वे समस्त क्रियाएँ जो आसव ए बन्ध की कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएँ जो संवर एवं निर्जरा की हेतु हैं, अकर्म जैन दृष्टि में अकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर कर्त्तव्य अथवा शरीर- निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म । कर्म का अर्थ है राग-द्वेष मोह से युक्त कर्म, वह बन्धन में डालता है, इसलिए वह कर्म है। जो क्रिया व्यापार राग है और मोह से रहित होकर कर्त्तव्य या शरीरनिर्वाह के लिए किया जाता है, वह बन्धन कारण नहीं है, अतः अकर्म है । जिन्हें जैन दर्शन में ईर्यापथिक क्रियाएँ या अकर्म कहा गया उन्हें बौद्ध परम्परा अनुपचित, अव्यक्त या अकृष्ण- अशुक्ल कर्म कहती हैं और जिन्न जैन - परम्परा साम्परायिक क्रियाएँ या कर्म कहती हैं, उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण - शुक्ल कर्म कहती हैं । इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना आवश्यक है। बन्धन के कारणों में मिथ्यात्व और कषाय की प्रमुखता का प्रश्न
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जैन कर्मसिद्धान्त के उद्भव व विकास की चर्चा करते हुए हमनें बन्धन के पाँच सामान्य कारणों का उल्लेख किया था। वैसे जैन ग्रन्थो में भिन्न-भिन्न कर्मों के बन्धन के भिन्न-भिन्न कारणों की विस्तृत चर्चा भी उपलब्ध होती हैं । किन्तु सामान्य रूप से बन्धन के 5 कारण मानें गए हैं 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद और 4 कषाय और 5 योग ।
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इन पाँच कारणों में योग को अर्थात् मानसिक, वाचिक व शारीरिक क्रियाओं को बन्धन क कारण कहा गया है, किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि यदि पूर्व के चार का अभाव हो, तो मात्र योग से कर्म वर्गणाओं का अस्राव होकर, जो बन्ध होगा, वह ईर्यापथिक बन्ध कहलाता है।
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