Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 104
________________ प्रो. सागरमल जैन 102 होती है, वैसे ही कर्म के परिणाम स्वरूप भी वेदना होती है, अतः वे मूर्त हैं। किन्तु दाशील दृष्टि से यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि कर्म मूर्त है तो, वह अमूर्त आत्मा पर प्रभाव डालेगा? जिस प्रकार वायु और अग्नि अमूर्त आकाश पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं है सकती है, उसी प्रकार कर्म का अमूर्त आत्मा पर भी कोई प्रभाव नहीं होना चाहि जैनदार्शनिक यह मानते हैं कि जैसे अमूर्त ज्ञानादि गुणों पर मूर्त मदिरादि का प्रभाव पड़ता वैसे ही अमूर्त जीव पर भी मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। उक्त प्रश्न का दूसरा तर्क-संगत। निर्दोष समाधान यह भी है कि कर्म के सम्बन्ध से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। क्यों, संसारीआत्मा अनादिकाल से कर्मद्रव्य से सम्बद्ध है, इस अपेक्षा से आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं। अपितु कर्म से सम्बद्ध होने के कारण स्वरूपतः अमूर्तः होते हुए भी वस्तुतः कथंचित् मूर्त है। इस दृष्टि से भी आत्मा पर मूर्तकर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः जि पर कर्मसिद्धान्त का नियम लागू होता है, वह व्यक्तित्व अमूर्त नहीं है। हमारा वर्तमान व्यक्तित शरीर (भौतिक) और आत्मा (अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है। शरीरी आत्मा भौतिक बाह्य तथ्यों से अप्रभावित नहीं रह सकता। जब तक आत्मा-शरीर (कर्म-शरीर) के बन्धन मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकती। मूर्त शरीर के माध्यम से ही उस पर मूर्तकर्म का प्रभाव पड़ता है। आत्मा और कर्मवर्गणाओं में वास्तविक सम्बन्ध स्वीकार करने पर यह प्रश्न उठता है कि मुक्त अवस्था में भी जड़ कर्मवर्गणाएँ आत्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगी, क्योंकि मुक्ति-क्षेत्र में भी कर्मवर्गणाओं का अस्तित्व तो है ही। इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों का उत्त यह है कि जिस प्रकार कीचड़ में रहा लोहा जंग खाता है, परन्तु स्वर्ण नहीं, उसी प्रकार जड़कर्म पुद्गल उसी आत्मा को विकारी बना सकते हैं, जो राग-द्वेष से अशुद्ध है। वस्तुतः जो तक आत्मा भौतिक शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्मवर्गणा के पुद्गल उसे प्रभावित कर सकते हैं। आत्मा में पूर्व से उपस्थित कर्मवर्गणा के पुद्गल ही बाह्य-जगत् के कर्मवर्गणाओं को आकर्षित कर सकते हैं। मुक्त अवस्था में आत्मा अशरीरी होता है अतः उसे कर्मवर्गणा के पुद्गल प्रभावित करने में समर्थ नहीं होते हैं। कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा कर्म एवं उनके विपाक की परम्परा से ही यह संसार-चक्र प्रवर्तित होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से हुआ यदि हम यह सम्बन्ध सादि अर्थात् काल विशेष में हुआ, ऐसा मानते हैं, तो यह मानना होगा कि उसके पहले आत्मा मुक्त था और यदि मुक्त आत्मा को बन्धन में आने की सम्भावना हो तो फिर मुक्ति का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता है। यदि यह माना जाय कि आत्मा अनादिकाल से बन्धन में है, तो फिर यह मानना होगा कि यदि बन्धन अनादि है तो वह अनन्त भी होगा, ऐसी स्थिति में मुक्ति की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी। जैन दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान इस रूप में किया कि कर्म और विपाक की यह परम्परा कर्म विशेष की अपेक्षा से तो सादि और सान्त है, किन्तु प्रवाह की अपेक्षा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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