Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 60
________________ 58 अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है। निरालम्बन ध्यान से समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा का ध्यान करे। - इस प्रकार चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही समालोच्य ध्यानपरम्पराओं का प्रमुख लक्ष्य रहा है क्योंकि वासनाओं द्वारा ही मन-क्षोभित होता है, जिससे चेतना के समत्व का भंग होता है। ध्यान इसी समत्व या समाधि को प्राप्त करने की साधना है। ध्यान का सामान्य अर्थ - ___ ध्यान शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय या बिन्दु पर केन्द्रित होना है। चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान के दो रूप निर्धारित हुए -१) प्रशस्त और २) अप्रशस्त। उसमें भी अप्रशस्त ध्यान के पनः दो रूप माने गये-१) आर्त और २) रौद्र। प्रशस्त ध्यान के भी दो रूप माने गये-१) धर्म और २) शुक्ला जब चेतना राग या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर केन्द्रित होती है तो उसे आर्त ध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्तवस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में चित्त का डूबना आर्त ध्यान है।३ आर्तध्यान चित्त के अवसाद/विषाद की अवस्था है। जब कोई उपलब्ध अनुकूल विषयों के वियोग का या अप्राप्त अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है, वही रौद्रध्यान है। इस प्रकार आर्त ध्यान रागमूलक होता है और रौद्र ध्यान द्वेष मूलक होता है। राग-द्वेष के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं, अतः अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान प्रशस्त माने गये हैं। मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है। यह लोकमंगल और आत्म विशुद्धि का साधक होता है। चूंकि धर्मध्यान में भोक्ताभाव होता है, अतः यह शुभ आस्रव का कारण होता है। जब आत्मा या चित्त की वृत्तियाँ साक्षीभाव या ज्ञाता द्रष्टा भाव में अवस्थित होती है, तब साधक न तो कर्ताभाव से जुडता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षीभाव की अवस्था ही शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। १) योगशास्त्र, १२/५-६ २) तत्त्वार्थसूत्र ९।२७, ३) वही ९:३१, ४) वही ९।३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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