Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 53
________________ 51 ध्यान की इस प्रक्रिया में आत्मा के द्वारा परमात्मा (शद्धात्मा) के दर्शन के पूर्व सर्व प्रथम तो हम अपने 'वासनात्मक स्व' (id) का साक्षात्कार होता है - दूसरे शब्दों में हम अपने ही विकारों और वासनाओं के प्रति जागते हैं। जागरण के इस प्रथम चरण में हम उनकी विद्रूपता का बोध होता है। हमें लगता है कि ये हमारे विकार भाव है - विभाव हैं, क्योंकि हममें ये 'पर' के निमित्त से होते हैं। यही विभाव दशा का बोध साधना का दूसरा चरण है। साधना के तीसरे चरण में साधक विभाव से रहित शुद्ध आत्म दशा की अनुभूति करता है - यही परमात्म दर्शन है। स्वभावदशा में रमण है। यहां यह विचारणीय है कि ध्यान इस आत्म-दर्शन में कैसे सहायक होता है? * ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आंख बन्द करनी होती है। जैसे ही आंख बन्द होती है-व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत से टूटकर अन्तर्जगत से जुडता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है, अब हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएं न होकर मनोसृजनाएं होती है। जब व्यक्ति इन मनोसृजनाओं (संकल्प-विकल्पों) का द्रष्टा बनता है, उसे एक ओर इनकी पर-निमित्तता (विभावरूपता) का बोध होता है तथा दूसरी ओर अपने साक्षी स्वरूप का बोध होता है। आत्मअनात्म का विवेक या स्व-पर के भेद का ज्ञान होता है। कर्ता-भोक्ता भाव के विकल्प क्षीण होने लगते हैं। एक निर्विकल्प आत्म-दशा की अनुभूति होती है। दूसरे शब्दों में मन की भाग-दौड समाप्त हो जाती है। मनोसृजनाएं या संकल्प-विकल्प विलीन होने लगते हैं। चेतना की सभी विकलताएं समाप्त हो जाती हैं। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। सहज-समाधि प्रकट होती है। इस प्रकार आकांक्षाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों एवं तनावों से मुक्त होने पर एक अपरिमित निरपेक्ष आनन्द की उपलब्धि होती है। आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप में लीन रहता है। इस प्रकार ध्यान आत्मा को परमात्मा या शुद्धात्मा से जोड़ता है। अतः वह आत्मसाक्षात्कार या परमात्मा के दर्शन की एक कला है। ध्यान मुक्ति का अन्यतम कारण जैनधर्म में ध्यान को मुक्ति का अन्यतम कारण माना जा सकता है। जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास के जिन १४ सोपानों (गुणस्थानों) का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को अयोगी केवली गुण-स्थान कहा गया है। अयोगी केवली गुणस्थान वह अवस्था है जिसमें वीतराग-आत्मा अपने काययोग, वचनयोग, मनोयोग अर्थात शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध होने पर ही वह मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया सम्भव है शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्यूपरत क्रिया निवृत्ति के द्वारा। अतः ध्यानमोक्ष काअन्यतम कारण है। जैन परम्परा में ध्यान में स्थित होने के पूर्व जिन पदों का उच्चारण किया जाता है वे निम्न हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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