Book Title: Sramana 1994 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 34
________________ 32 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा ही पद वंदनीय होते हैं। इसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी उपर्युक्त पाँचों ही पद वंदनीय माने गये हैं। जैन परम्परा में जो वंदन के पाठ उपलब्ध हैं उनके अनुसार वंदन में पूज्य - बुद्धि या सम्मान का भाव आवश्यक माना गया है। पूज्य-बुद्धि के अभाव में वंदन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। स्तुति एवं वंदन दोनों में ही गुण संकीर्तन की भावना स्पष्ट रूप से जुड़ी है। पूजा, अर्चा और भक्ति जैन परम्परा में मूर्ति पूजा की अवधारणा अति प्राचीन काल से पायी जाती है। तीर्थंकरों की प्रतिमाओं की पूजा का विधान आगमों में उपलब्ध है। परवर्ती काल में शासन-देवता के रूप में यक्ष-यक्षी एवं क्षेत्रपालों (भैरव) की पूजा भी होने लगी। जैन परम्परा में तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण ई. पू. तीसरी शती से तो स्पष्ट रूप से होने लग गया था, क्योंकि मौर्यकाल की जिन - प्रतिमा उपलब्ध होती है। इससे पूर्व भी नन्द राजा के द्वारा कलिंग जिन की प्रतिमा को उठाकर ले जाने का जो खारवेल का अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध है। उसके आधार पर यह माना जा सकता है कि मौर्य काल से पूर्व भी तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया था । किन्तु उस युग की जिन प्रतिमा की पूजा-अर्चा की विधि को बताने वाला कोई ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। जैन परम्परा में पूजा-अर्चा के विधि-विधान एवं मन्दिर निर्माण कला आदि के सूचित करने वाले जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे लगभग ई. सन् की प्रारम्भिक सदियों के हैं । जैन आगमों में स्थानांग, ज्ञाताधर्म एवं राजप्रश्नीय सूत्र में मंदिर संरचना एवं जिन प्रतिमाओं की पूजन विधि के उल्लेख हैं । मथुरा के प्रथम शती के अंकनों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है । क्योंकि उनमें कमल-पुष्प ले जाते हुए श्रावक-श्राविकाओं को अंकित किया गया है। जो पूजा विधि राजप्रश्नीय सूत्र और परवर्ती ग्रन्थों में उपलब्ध है उसके अनुसार मुनि और साध्वियां तो जिन प्रतिमाओं की वंदन एवं स्तुति के रूप में भाव - पूजा ही करते हैं। गृहस्थ ही उनकी पूजा - सामग्री से द्रव्य पूजा करता है। गृहस्थ की पूजा विधि के अनुसार कूप अथवा पुष्करणी में स्नान करके वहां से कमल पुष्प और जल लेकर जिन प्रतिमा का पूजन किया जाता था । ज्ञाताधर्म व राजप्रश्नीय में जिन प्रतिमा की पूजा विधि निम्न प्रकार से वर्णित हैं "तत्पश्चात् सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों यावत् और दूसरे बहुत से देवों और देवियों से परिवेष्ठित होकर अपनी समस्त ऋद्धि, वैभव यावत् वाद्यों की तुमुल ध्वनिपूर्वक जहाँ सिद्धायतन था, वहां आया। पूर्व द्वार से प्रवेश करके जहाँ देवकदक और जिन प्रतिमाएँ थीं, वहां आया । वहां आकर उसने जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी ( मयूर - पिच्छ की पूंजनी) हाथ में ली और प्रमार्जनी को लेकर जिन प्रतिमाओं को प्रमार्जित किया । प्रमार्जित करके सुरभि गन्धोदक से उन जिन प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया । प्रक्षालन करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप करके काषायिक सुरभि गन्ध से सुवासित वस्त्र से उनको पोछा । उन जिन - प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य-युगल पहनाया । देवदूष्य पहना कर पुष्प, माला, गन्ध, चूर्ण, वर्ण, वस्त्र और आभूषण चढ़ाये। इन सबको चढ़ाने के अनन्तर फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी-लम्बी गोला मालाएँ पहनाईं। मालाएँ पहनाकर पंचर पुष्पगणों को हाथ में लेकर उनकी वर्षा की और मांडने माडंकर उस स्थान को सुशोभित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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