Book Title: Siddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 7
________________ दूसरे अध्याय में आचार्य के व्यक्तित्व के कुछ मुख्य पहलुओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है जो प्रबन्धादि साहित्य के आधार पर उपलब्ध हो सके हैं। क्योंकि स्वयं आचार्य ने अपने जीवन के विषय में कहीं कुछ नहीं लिखा है। तीसरे अध्याय में उनकी कृतियों, उनके पौर्वापर्य सम्बन्धों तथा कौन सी रचनाएँ आचार्य द्वारा रचित हैं और कौन नहीं, इस प्रश्न को उपलब्ध तत्कालीन साहित्य के सन्दर्भ में व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। आभार प्रदर्शन के क्रम में मैं सर्वप्रथम पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया का आभार प्रकट करता हूँ जो इस कृति के प्रणयन के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। हम आपके विशेष आभारी इसलिए भी हैं कि समय-सयम पर इस सन्दर्भ में आपका सुझाव हमें प्राप्त होता रहा। __ श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ०सागरमल जैन का आभार मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ जिन्होंने इस कृति के प्रणयन के लिए न केवल मुझे उत्साहित किया अपितु इस कृति की पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़कर उचित मार्गदर्शन भी दिया तथा इस कृति के लिए विद्वत्तापूर्ण 'प्रस्तावना' भी लिखी। यद्यपि इस कृति में हमारे निष्कर्ष आपके निष्कर्षों से भिन्न हैं फिर भी मैं जिस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ, वहाँ बिना आपकी सहायता के नहीं पहुँच पाता, यह यथार्थ है। कृति के प्रकाशन की इस बेला में श्रद्धेय गुरुवर्य के प्रति मैं श्रद्धा से नत हूँ। पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रबन्ध समिति के मानद सचिव प्रसिद्ध उद्योगपति श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन एवं संयुक्त सचिव श्री इन्द्रभूति बरड़ के प्रति मैं सहृदय आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने इस कृति के प्रकाशनार्थ अपनी स्वीकृति दी। ____ हमारे पूज्य गुरुदेव प्रोरेवती रमण पाण्डेय, अध्यक्ष, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिन्होंने न केवल मुझमें दर्शन का बीज वपन किया बल्कि उसे पल्लवित व पुष्पित भी किया, ऐसे गुरुश्रेष्ठ की गुरुता शब्दाभिव्यक्ति से परे मेरे लिए महज अनुभवजन्य है। इस कृति के प्रणयन में जैन मन्दिरस्थापत्य एवं कला के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् प्रो० एम०ए० ढाकी, सह-निदेशक-शोध, अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज का महत्त्वपूर्ण अवदान रहा है। आपसे हमें बहुत कुछ सीखने को मिला है। विशेषकर प्रस्तुत कृति के सन्दर्भ में आपसे गहन चर्चाएँ हुईं। मैं आपके प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। मेरे मित्रगण जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस कृति के प्रणयन में हमारे सहयोगी रहे हैं और जिनसे हमने जैन एवं जैनतर अन्य दार्शनिक समस्याओं पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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