________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१२
विशिष्ट प्रतिभा के बल पर आप अपने वर्ग में सदैव प्रथम श्रेणि से ही उत्तीर्ण होते रहे । उच्चशिक्षा के लिये आप तत्कालीन प्रख्यात लाहौर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज में दाखिल हुए और उच्चतम अंकों के साथ बी. ए. ऑनर्स की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण होने के पश्चात् सनातन धर्म कॉलेज में ही प्रोफेसर बनने का प्रस्ताव आपके सामने आया, परन्तु उन्होंने यह कार्य अपने योग्य न समझकर उसे नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया ।
मई २०१३
-
आपके माता-पिता अत्यन्त धार्मिक एवं सुसंस्कारी प्रवृत्ति के थे इसलिए उनके गुणों का प्रभाव आप पर भी पड़ा। बाल्यकाल से ही माता-पिता ने उनमें सुसंस्कारों का सिंचन किया था, फलस्वरूप अपने माता-पिता, गुरुजनों एवं बड़ों के प्रति आदर के प्रति अत्यन्त आदर का भाव रखते थे। विनम्रता एवं मृदुभाषिता जैसे गुण तो उन्हें विरासत में ही मिले थे। जब आप पाठशाला में थे, तभी उन्हें स्थानकवासी मुनि श्री छोटेलालजी महाराज साहब से परिचय हुआ था । मुनिश्री के सम्पर्क में आने के बाद आपके मन में अंकुरित आत्मसंशोधन की जिज्ञासा विकसित होने लगी और उनके पास दीक्षित होने के भाव मन में सुदृढ़ होने लगे। माता-पिता को जैसे ही इस बात के संकेत मिले उन्होंने काशीराम को सांसारिक बन्धनों में बाँधने का निर्णय कर लिया और रामपुरा फूल निवासी शांतादेवी नामक एक सुन्दर - सुशील कन्या के साथ इनका विवाह कर दिया। काशीरामजी प्रारम्भ से ही सांसारिक बन्धनों में बन्धने के इच्छुक नहीं थे, किन्तु माता-पिता के अत्यधिक आग्रह के कारण मात्र उनकी खुशी के लिये विवाह करना पड़ा ।
For Private and Personal Use Only
काशीरामजी को धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में बहुत रुचि थी। वे मुनि श्री छोटेलालजी के यहाँ बराबर जाया करते थे और उनके यहाँ से नियमित रूप से कोई धार्मिक पुस्तक अपने घर लाते और एक दिन में ही पूरी तरह पढ़कर उसे दूसरे दिन वापस कर देते और दूसरी पुस्तक ले जाते। एक दिन मुनिश्री ने सहज भाव से पूछ लिया काशीराम ! तुम मात्र पुस्तक ले जाकर पुनः ले आते हो या उसे पढ़ते भी हो? काशीराम ने नम्रता पूर्वक कहा आप पुस्तक से कोई प्रश्न पूछ लीजिए, मैं पढ़ता हूँ या नहीं, वह स्वयं सिद्ध हो जाएगा। ऐसा जवाब सुनकर मुनिश्री को बहुत प्रसन्नता हुई। काशीराम की याद्दाश्त इतनी अपूर्व थी कि वे जिस पुस्तक को एक बार पढ़ लेते वह उन्हें पूरी तरह याद हो जाती ।
काशीरामजी जन्म से स्थानकवासी मान्यता के होने के कारण मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। कई बार वे मूर्तिपूजक समाज के लोगों के साथ चर्चा में भी उतर जाते और मूर्तिपूजा का घोर विरोध करते हुए मूर्ति को मात्र पत्थर कहकर