Book Title: Shrutsagar Ank 2013 05 028
Author(s): Mukeshbhai N Shah and Others
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर वर्ष-३, अंक-४, कुल अंक-२८,मई-२०१३ दकि IRS BE गडगतिगवकाति HERE WER गावाकसुयश्लवादारो। अस्यागाधायाचक जेजीवसनाडिमादिमरी वलीचसनाडिजिमादिक पजतिजीवनइंशवाद बिऊनिऊसमयनीवियद RRC Ranassuममता यवसमयनीवियदगति परंसमाजीदनना इतिसदणीमुक्यवाणिलिपीक वासंतपण्वाईशीटपनगावकराववतमासीमचलितःशी तेवगिजसारगणितिवशिष्यपशिष्यवावनाया। शेयोम। गजसार गणिना हस्ताक्षरोमां लखायेल दंडक प्रकरणनी प्रतनुं अंतिम पत्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 940 www.kobatirth.org लोढाधाम प्रतिष्ठानी अविस्मरणीय क्षणो For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6445 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र श्रुतसागर २८ * आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक मंडल मुकेशभाई एन. शाह कनुभाई एल. शाह डॉ. हेमन्त कुमार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिरेन दोशी केतन डी. शाह एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ मई, २०१३, वि. सं. २०६९, वैशाख सुद-५ For Private and Personal Use Only प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स: ( ०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मई . २०१३ अनुक्रम ९ १. प्रसंग परिमल २. २४ दंडक विचार गर्मित पार्श्वजिन स्तवन हिरेन दोशी ३. अंकलेश्वरना धातु प्रतिमा लेखो आचार्य श्री विजयसोमचंद्रसूरि ४. निःस्पृह चूडामणि आचार्य श्री कैलाससागरसूरि संक्षिप्त परिचय डॉ. हेमन्त कुमार ५. लोढाधाम मंडन ___ श्री सीमंधर जिन स्तुत्यष्टक मुनिश्री विरागसागरजी म.सा. ६. कापरडाजी तीर्थ कनुभाई ल. शाह ७. पुरुषार्थ चतुष्टय : जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में डॉ. उत्तमसिंह ८. कोचर व्यवहारी का समय-निर्णय अगरचंदजी नाहटा ९. ज्ञानमंदिर कार्य अहेवाल १०. समाचार सार डॉ. हेमन्त कुमार प्राप्तिस्थान आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग होल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं, (०७९) २६५८२३५५ प्रकाशन सौजन्य . कटारिया संघवी श्री मिश्रीमलजी नथमलजी परिवार (नैनावा निवासी) रत्नमणी मेटल्स एण्ड ट्युन्स लि. - अहमदाबाद For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसंग परिमल परमपूज्य गुरुदेवश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.नी पावन निश्रामा ता. २६४-२०१३ना मुंबइ समीप लोढाधामनी प्रतिष्ठा थई, आनंद छवाई गयो. प्रभुनी पधरामणी थतां 'पगलां पड्याने आनंद छायो' जेवू वातावरण बन्यु, आ वातावरणना साक्षी बननार आजेय आनंदनी लागणी अनुभवी रह्यां छे. लोढाधामना जिनालये दादा सीमंधरनी प्रतिष्ठा थई.. वर्षोथी लोढाधाम निर्माणना जे मनोरथो हृदयना कोक खूणे जाग्याता ए आ दिवसे पूरा थया. 'विषमकाळे भवियण कुं जिनबिंब जिनागम आधारा' पूजानी आ पंक्तिना शब्दोने मंगलप्रभातजीए साकार कर्या. पूज्य गुरुदेवश्रीनी प्रेरणा अने पोतानी वर्षोथी सेवेली ईच्छा आजे लोढाधामना निर्माण रूपे साकार बनी. मंगलप्रभातजीए पूज्य गुरुदेवश्रीना हस्ते श्री सीमंधरस्वामी भगवाननी प्रतिष्ठा करावी, अने अत्याधिक प्राचीन जीतकल्पसूत्र विगेरे ताडपत्रीय आगम ग्रंथो वहोराव्या. जिनागम बहुमान स्तवनमां उत्तमविजयजीए जिनबिंब अने जिनागमना महिमानी वात बहु सरस रीते रजु करी छे. ते भव रण भमतां थकां, जिनवर मंडप दीठो रे, जिनशासन थंभ तेहमां, देखत लागो मीठो रे. भव रणमां भटकता जीवो आ जिनबिंब अने जिनागमने पामी आनंदित बने छे. अन्यथा शरणं नास्तिनो अनुभव थया पछी जिनेश्वर अने जिनवाणी- शरण स्वीकारे छे, जिनबिंब अने जिनागम आ कलिकालमा तरवा माटेनु श्रेष्ठतम आलंबन छे. आधार छे. प्रतिष्ठानो आ अवसर कायम माटे याद रही जाय एवो प्रसन्न रह्यो. एमर्नु आ विशिष्ट अने उमदा आलंबननुं सर्जन स्व-पर माटे आत्मश्रेयस्करी बन्यु छे, एमां कोई शंकाने स्थान नथी. एमना आ सर्जनने सो सो सलाम.... आ पावन प्रतिष्ठाना अवसरे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तरफथी ज्ञानमंदिरमां संगृहीत हस्तप्रतोना सूचिपत्र भाग १४-१५नुं विमोचन थयुं, तेमज For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मई - २०१३ साथे साथे ज्ञानमंदिर तरफथी रासपद्माकर - २, अने ज्ञानमंदिर तरफथी पुनःप्रकाशित शांतसुधारस भाग१-३नुं विमोचन थयुं हतुं. प्रभु प्रतिष्ठा अने प्रकाशन विमोचननो आ पावन प्रसंग खरेखर यादगार बनी रह्यो. प्रतिष्ठाना आ अक्सरे मुनिराज श्री विरागसागरजी म.सा. सीमंधर जिन स्तुत्यष्टकनी सुंदर रचना मोकलवा द्वारा पोतानी हाजरी अने हर्ष व्यक्त कर्यो. आ रचना खूब भावसभर हृदयनी नीपज छे, हैयुं ज्यारे परमात्मा प्रत्येनी अपरंपार लागणीनी आबोहवाना श्वास भरतुं थाय त्यारे आवी रचनाओ अनायासे लखाई जती होय छे. आ स्तुत्यष्टक आ अंकमां प्रकाशित थयुं छे. __ साथे साथे आ अंकनी विशेषता रूपे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि महाराजना जीवननो संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत थयो छे, एमना जीवनबागना गुण कुसुमोनी सुगंध अहीं पाथरी छे, एमना जीवननो संक्षिप्त परिचय आ लेखनी प्रस्तुति सार्थ प्रकाशित थयो छे. आ अंकना मुख्य टाईटल रूपे प्रकाशित गजसार गणि द्वारा लिखित दंडकनी हस्तप्रतनुं अंतिम पत्र पूज्य शासनसम्राट् श्री नेमिसूरीश्वरजी म.सा.ना समुदायना आचार्य श्री विजयसोमचंद्रसूरि म.सा.ना सहयोगथी प्राप्त थयुं छे. आवता अंकनी एक बात आ अंके ज्ञानमंदिर तरफथी दर जीजा अंके विशिष्ट विषय अने नोंधना समुच्चय रूपे श्रुतसागर प्रकाशित थाय छे. आ अंक पछीना अंकमां बारव्रत टीप समुच्चय रूपे प्रकाशित करवा आयोजन छे. आ व्रत टीपो प्रकाशित थवाथी पूर्वकाळमां श्रावक श्राविकाओए गुरुभगवंतो पासे लीधेलां व्रतोनी नोंध, व्रतनुं स्वरूप, अने श्रावक श्राविकाओना जीवन साथै जोडायेली केटलीक ऐतिहासिक विगतो प्रकाशमां आवशे. तो साथे साथे ए समयना धार्मिक वातावरणनी पण नोंध मळशे. व्रत ग्रहण संबंधी कोई अप्रकाशित कृति आपश्री पासे होय तो अमने प्रकाशकना सरनामे मोकलवा विनंती. आपश्रीना नामनो योग्य उल्लेख करवामां आवशे. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ दंडक विचार गर्मित पार्श्वजिन स्तवन हिरेन दोशी तत्त्व अने पदार्थोने जिन गुण स्तवनाना माध्यमे वणी लेवा ए मध्यकाळना साहित्यनी आगवी विशेषता रही छे. एनाथी भक्ति अने साहित्यनो सुभग समन्वय थयो छे, आवी ज एक लघु रचना श्री पार्श्वचंद्रसूरि कृत दंडक पदार्थ गर्भित पार्श्व जिन स्तवन अत्रे प्रस्तुत छे. दुहा छंदनी आ कृति कुल २३ कडीनी रचना छे. कविए गुण स्तवन प्रगटीकरणना माध्यमे दंडकना पदार्थोने कहेवानी तक लीधी छे. दंडकना पदार्थोनी साथे साथे भक्तिने साधवानी वात आ कृतिना माध्यमे कविए प्रस्तुत करी छे. कवि पार्श्वनाथ भगवानने प्रणाम करी, चार गतिना दुखमाथी छोडाववानी वात करी आ कृतिनो प्रारंभ करे छे. तारी आज्ञानो हृदयथी स्वीकार करवाथी भव भ्रमणना दुखथी छुटवानी वात करी परमात्मा प्रत्येनी श्रद्धा कविए व्यक्त करी छे. ____ अनंतकाळे प्राप्त थनार मनुष्य भवनी महत्ता दर्शावी, त्रीजी कडीथी कवि दंडकना पदार्थो तरफ कृति आगळ वधे छे. भव भ्रमणना निवेदन रूपे दंडकना पदार्थोने कविए स्तवनना माध्यमे प्रस्तुत कर्या होवाथी निवेदनना अंते कवि परमात्माने 'मुजनइ अवर नहीं आधार' लखी प्रभु भक्तिनी मार्मिक अभिव्यक्ति रजू. करी छे, 'अन्यथा शरणं नास्ति' नो ध्वनि अहीं गुंजे छे. कर्ता परिचय: आबू पासेना हमीरपुरमा शेठ वेलजीना पत्नी विमलानी कूखे वि.सं. १५७३मां एमनो जन्म थयो हतो. तेमणे साधुरत्न पासे वि.सं. १५४६मां दीक्षा लीधी, वि. सं. १५५४मां नागोरम उपाध्यायपदवी मेळवी. तेमज वि. सं. १५९९मां तेमने भट्टारक पद प्राप्त कर्यु. वि. सं. १६१२ना मागसर सुदमां तेमनो जोधपुर मुकामे स्वर्गवास थयो. वि. सं. १५७२मां तेमणे ११ बोलनी प्ररूपणा करी, पायचंद मत चलाव्यो. जे समय जतां पायचंद गच्छ नामथी जाहेर थयो, तेमणे घणा आगमोना टबाओ लख्या छे. वि. सं. १५८८मां तेमणे श्रेणिकरासनी रचना करी,तेमज लोंकागच्छना For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मई - २०१३ विरोधमा १२२ बोल बनाव्या, तेमज विविध २६ जेटली सज्झायो अने विविध स्तवनोनी रचना करी. (जै.प.इ.रना आधारे) प्रत परिचय : आ कृतिनी प्रत ज्ञानमंदिरमा ३५९५८ नंबरना क्रमांक पर संगृहीत छे. अंदाजे विक्रमनी १७मी सदीमां लखायेल आ प्रतर्नु परिमाण २५४११ छे. प्रतनी ७ लाईनमा ३२ जेटला अक्षरो आलेखाया छे, अक्षरो सुंदर छे. कडी क्रमांकनी बन्ने तरफ दंड आपवामां आव्या छे, क्रमांक अने दंड माटे लाल रंगनो वपराश थयो छे. २४ दंडक विचार गर्भित पार्धजिन स्तवन प्रणमउं पासनाह प्रहि समइ, दरसणि दुरिय दाह उपसमइ । करउं वीनती बइ करजोडि, गति आगलि भव तणीय विछोडि ||१|| तउं समरथ प्रभु त्रिभुवन धणी, हियडइ आण वहउं तुम्ह तणी । काल अनंतइ दुल्लह लहीहि, वडां भवभय बीहउं नही ।।२।। बोली जीव तणी गति च्यारि, चउरासी लखयोनि विचार | वार अनंत अकेकी रहिउ, तुह पणि तुम्हे दंसण नवि लहिउ ||३|| सहू जीव दंडक चउवीस, ते मनि आणवा निसिदीस | बहु भव लगइ सुख दुख तिहां सह्या, न्यानी विण किम जाइ कह्या ।।४।। पहिलउ दंडक नारक तणउ, भवनपति दस दंडक भणउ | थावर पंच्च विगलंदी तिन्नि, पंचेंद्रीतिरि नर ए दुन्नि ।।५।। वितर जोइस वेमाणिया, इणि परि चउंचीसइ जणिया । सुगुरुवचन मनिमाहि धारसु, तेहनी गति आगति पभणसु ।।६।। For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - २८ www.kobatirth.org श्रुतसागर वसई ते गति कहवाइ | पूरी आय जीव जिहां जाइ, कर्म चवीसइ आवई जिहां हुती, भणियइ आगम ते आगती ।।७।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाइ बहुं आवइ बिहु थकी, पंचेद्री तिरि नर नारकी । आगति एह भवनपति तणी, गति पांचइ श्रीप्रवचनि भणी ||८|| पुढवी पाणी वणसइकाय, पंचेद्री तिरि नर माहइ जीइ । एणी परि दंडक ए अग्यार, आगति गति तु कहिउ विचार 118 | पहिलउ थावर पृथिवीकाय, विणसी दस दंडक माहिं जाइ पंचइ थावर बिं-ति- चउरिंदि, माणुसनइ तिर्यंच पर्चिदि ||१०|| नारय विण दंडक वीस पृथिवी माहिं आवइ निसिदीस । इणि परि पाणी विणसइ काय, दस गति आगति त्रेवीसइ थाइ ।।११।। ते काय नव दंडक माहि जाइ एक माणस नवि थाइ । आवइ दस दंडक मांहिथी, तेर देव एक नारकनथी । १२ ।। वाउकाय गति आगति जाणि, अगनिकाय जिम सूत्र वखाणि । नव गति दस आगति एहनी, इम विचित्र गति छइ जीवनी ||१३|| हिव विगलेंदी विगति विचारी, त्रिणइ दस दंडक मझारि । कर्मयोगि गति आगति करइ वली, मरइ वली वली अवतरइ ||१४|| पंचेदी तिरि-नर- विगलिंद, पंचइ थावर ए दसिंद | एह मांहिं गति आगति जाणि बि-ति- चउरिंदी तणी वखाणि ।।१५।। हिव पंचिंदी कहउं तिर्यंच, चउवीसइ गति आगति संच । भव अनंत पूरिओ संसार, तउ पुण प्रभु विण नावइ पार ||१६|| सिद्ध सहित दंडक पंचवीस, मणुय तणी गति ए पंचवीस । तउ वाउ विण आवी रहइ, बावीसइ मानव भव लहइ ||१७|| For Private and Personal Use Only ७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गति आगति व्यंतर ज्योतिष, भवणेसर सुरवर सारिखी । पांच गतिनइ आगति दोइ, प्रवचनवचन विमासी जोइ || १८ || दुन्नि कल्प सौधर्म - ईसाण, पंचय गति आगति बिहु जाणि । आदिइ देइ सनतकुमार, ऊपरि अष्टम सहसार ||१९|| पंचेद्री तियच विचारि, मानव दंडक बेहू मझारि । जाइ अनइ आवइ ते वली, इम बोल्यउं प्रवचनि केवली || २० ॥ मई २०१३ कल्पच्यारि एथी ऊपिल्या ग्रैवेयक अणुत्तर भला । मानव भवनउ दंडक एक, गति आगतिनउ कहिउ विवेक ||२१|| इम चउवीसइ दंडक भम्यु, आलइ मानव भवनी गम्यु । हिव आव्यु तुम्ह सरणा भणी, बंधन छोडि न त्रिभुवनधणी ।।२२।। सामी सेवकनइ साधारि, मुझनइ अवर नहीं आधार । पासचंद करजोडी कहइ, प्रभु प्रसादि परमारथ लहइ || २३ || || इति चउवीसद्दंडकस्तवनं समाप्तः ।। ज्ञानमंदिरनां नवा प्रकाशनो कथादीप * नैन बहे दिन रैन * सुप्रभातम् - For Private and Personal Use Only * कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूचि भाग १४-१५ * रास पद्माकर २ शांतसुधारस (आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरिजी लिखित ) भाग १ - २-३ ज्ञानमंदिरना आगामी प्रकाशनो : आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरि : आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरि : आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंकलेश्वरना धातु प्रतिमा लेखो आचार्य श्री विजयसोमचंद्रसूरि शांतिनाथ जिनालयना उपरना गभारामा रहेली धातु प्रतिमाना लेखो १. जिनप्रतिमा १. संवत् १३२८.....................शुदि २ .... ..........कारिता २. चोवीशी, शांतिनाथ भगवान संवत् १५०८ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ६ बुधे ओसवंशे ठ. तेजा भा. आखणदे पु. ठ. सिंघा भा. नवकू घु. सामलसुश्रावकेण भा. वीरु पु. रत्ना-धर्मा-कर्मा भ्रा. धांधधरसी-झांझण-माणिक-मांडलिकमुख्यकुटुंबसहितेन श्रीअंचलगच्छनायक श्रीजयकेसरिसूरीणामुपदेशेन स्वश्रेयसे श्रीशांतिनाथ बिंबं कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन। ३. चोवीशी, कुंथुनाथ भगवान संवत् १५५६ वर्षे वै.शु.३ आमलेश्वरवास्तव्य लाडूआश्रीमालीज्ञातीय श्रे. धना भा. गोमति सु. श्रे. सगराज भा. धाउं सुत वीका-कीका-भाणा-वेला-केसव कुटुंबयुतेन स्वश्रेयोर्थं श्रे. सगराजेन श्री कुंथुनाथबिंबं कारितं प्र. लघुशालीव तपागच्छनायकश्रीश्रीसुमतिसाधुसूरि तत्पट्टे परमगुरु भट्टारकप्रभुश्रीश्री हेमविमलसूरिभिः । ४. पंचतीर्थी महावीरस्वामी भगवान संवत् १५२० वर्षे पोष वदि ५ शुक्रे प्राग्वाटज्ञातीय व्य. माधव भा. झटकू भूजाइ जाउकेन स्वश्रेयोर्थं श्री महावीरबिंबं श्रीआगमगच्छेश श्रीदेवरत्नसूरिणामुपदेशेन का. प्रति. घोघा वास्तव्य । ५. पंचतीर्थी, पार्श्वनाथ भगवान सं. १५६० व. ज्ये. व. ७ बुधे श्रीओसवंशे चीवडगोत्रे सा. सुजस सु. सहसधीर सु. श्रीपाल भा. कवला सु. सा. श्रीकमलेन भ्रातृ श्रीरंगश्रेयोर्थं श्रीपार्श्वनाथबिंब का. प्र. श्रीउकेशगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिभिः । For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १० ७. www.kobatirth.org ६. पंचतीर्थी, धर्मनाथ भगवान संवत् १५५९ वर्षे वैशाख माहे सुदि २ श्रीप्राग्वाटज्ञातिय व्य. पेथड संताने व्य. गईआ भार्या मणकाइ सुत व्य. डूंगर भा. मंगाइ सु. व्य. काहाकेन भा. पोखीप्रमुखकुंटुंबयुतेन स्वश्रेयसे श्री श्री श्रीधर्मनाथबिंब: श्रीआगमगच्छे श्रीविवेकरत्नसूरीणामुपदेशेन कारितः प्रतिष्ठितश्चति । गंधारवास्तव्यः। पंचतीर्थी, शांतिनाथ भगवान ज्ञा. = ज्ञातीय ठ. = ठक्कुर उप. उपदेशेन सु. = सुत = सं. १४३० माह वद ३ चंद्रे श्रीमाल ज्ञा. परमालउ (?) भार्या भावलदे श्रेयसे श्रीशांतिपंचतीर्थी का श्रीरत्नशेखरसूरि उप. सुत.. ८. एकलतीर्थी सं. १२९० व. फा. सुदि १५ नायकिनाम्ना स्वश्रेयोर्थ श्री.. ९. पंचतीर्थी, शांतिनाथ भगवान शांतिनाथ भगवान. १०. शांतिनाथ भगवान शांतिनाथ भगवान का. = कारितं सा. = साह भार्या व्यवहारी भा. = व्य. = બે સુવિચાર Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * તમારા મરણ બાદ તમારે ભૂલાઈ જવું ન હોય તો કાં વાંચવા જેવું લખો, અથવા લખવા જેવું કાર્ય કરો. ♦ સંકટ સમયે હિંમત ધારણ કરવી એ અડધી લડાઈ જીતવા સમાન છે. For Private and Personal Use Only मई - २०१३ वर्षे प्र. = प्रतिष्ठितं व. = पु. = पुत्र भ्रा. = ..कारिता । भ्रातृ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नि:स्पृह चूड़ामणि आचार्य श्री कैलाससागरसूरि संक्षिप्त परिचय डॉ. हेमन्त कुमार परम पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज साहब जिनशासन गगन के एक ऐसे नक्षत्र थे जिन्होंने अपनी दिव्य आभा से जैनजगत को प्रकाशित ही नहीं किया बल्कि अनेक भव्य आत्माओं के जीवन ज्योति को जलाकर उन्हें आत्मजागृति की राह पर चलने में प्रकाशपुञ्ज की भाँति मार्ग प्रशस्त किया। तपागच्छ के महाधिनायक जगतगुरु परम पूज्य आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी की पाट परम्परा में एक यशस्वी नाम है. तपागच्छनायक आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरिजी महाराज। निःस्पृहता, निर्भीक अभिव्यक्ति, स्वाभाविक सहजता, कर्तव्य परायणता, नेतृत्व सक्षमता इत्यादि अनेकानेक सद्गुणों से देदीप्यमान जीवन जनसामान्य के लिये प्रेरणास्पद और वरदान रहा है। पूज्य आचार्यश्री ने जिनशासन के उन्नयन हेतु अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था, अपनी अनुपम प्रतिभा के प्रभाव से जैनसंघ एवं जिनशासन से संबद्ध अनेकानेक जटिल समस्याओं को सरलतापूर्वक हल किया करते थे। । युगों-युगों तक जिनका व्यक्तित्व और कृतित्व संपूर्ण जैन समाज को परोपकार और कर्तव्यनिष्ठा की सतत प्रेरणा देता रहे, ऐसे महापुरुष पूज्य गच्छनायक आचार्यश्री का जन्म पंजाब प्रान्त के लुधियाना जिले में जगरावाँ गाँव में विक्रम संवत् १९६०, मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष ६, दिनांक १९ दिसम्बर, १९१३ शुक्रवार के शुभ दिन पिता श्री रामकृष्ण दासजी के आँगन में माता श्रीमती रामरखी देवी की कुक्षि से हुआ था। इनके पिताजी लुधियाना जिला के प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यक्ति थे और जगरावाँ गाँव में स्थानकवासी जैन समाज में प्रमुख की भूमिका निभाते थे। आपका नाम काशीराम रखा गया। कहा जाता है कि काशीरामजी की कुंडली निकालने वाले एक ज्योतिषी ने उनके पिता से कहा था कि आपका पुत्र आगे चलकर सम्राट बने, ऐसे उच्च ग्रहयोग उसकी जन्म कुंडली में हैं। जो कहा था वही हुआ, इस पुण्यात्मा ने समय के साथ सावधानी पूर्वक कदम बढ़ाकर सम्राट ही नहीं तपागच्छनायक, महान जैनाचार्य, श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज के बहुश्रुत नाम से जीवन में आशातीत सार्थकता व अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। ___ बालक काशीरामजी की परवरिश जैनधर्म के आदर्श एवं सुसंस्कारों के अनुरूप हुई। बाल्यकाल से ही अत्यन्त विनम्र और मृदुभाषी होने के कारण आप सबके प्रिय बन गए। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई। अपनी For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ विशिष्ट प्रतिभा के बल पर आप अपने वर्ग में सदैव प्रथम श्रेणि से ही उत्तीर्ण होते रहे । उच्चशिक्षा के लिये आप तत्कालीन प्रख्यात लाहौर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज में दाखिल हुए और उच्चतम अंकों के साथ बी. ए. ऑनर्स की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण होने के पश्चात् सनातन धर्म कॉलेज में ही प्रोफेसर बनने का प्रस्ताव आपके सामने आया, परन्तु उन्होंने यह कार्य अपने योग्य न समझकर उसे नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया । मई २०१३ - आपके माता-पिता अत्यन्त धार्मिक एवं सुसंस्कारी प्रवृत्ति के थे इसलिए उनके गुणों का प्रभाव आप पर भी पड़ा। बाल्यकाल से ही माता-पिता ने उनमें सुसंस्कारों का सिंचन किया था, फलस्वरूप अपने माता-पिता, गुरुजनों एवं बड़ों के प्रति आदर के प्रति अत्यन्त आदर का भाव रखते थे। विनम्रता एवं मृदुभाषिता जैसे गुण तो उन्हें विरासत में ही मिले थे। जब आप पाठशाला में थे, तभी उन्हें स्थानकवासी मुनि श्री छोटेलालजी महाराज साहब से परिचय हुआ था । मुनिश्री के सम्पर्क में आने के बाद आपके मन में अंकुरित आत्मसंशोधन की जिज्ञासा विकसित होने लगी और उनके पास दीक्षित होने के भाव मन में सुदृढ़ होने लगे। माता-पिता को जैसे ही इस बात के संकेत मिले उन्होंने काशीराम को सांसारिक बन्धनों में बाँधने का निर्णय कर लिया और रामपुरा फूल निवासी शांतादेवी नामक एक सुन्दर - सुशील कन्या के साथ इनका विवाह कर दिया। काशीरामजी प्रारम्भ से ही सांसारिक बन्धनों में बन्धने के इच्छुक नहीं थे, किन्तु माता-पिता के अत्यधिक आग्रह के कारण मात्र उनकी खुशी के लिये विवाह करना पड़ा । For Private and Personal Use Only काशीरामजी को धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में बहुत रुचि थी। वे मुनि श्री छोटेलालजी के यहाँ बराबर जाया करते थे और उनके यहाँ से नियमित रूप से कोई धार्मिक पुस्तक अपने घर लाते और एक दिन में ही पूरी तरह पढ़कर उसे दूसरे दिन वापस कर देते और दूसरी पुस्तक ले जाते। एक दिन मुनिश्री ने सहज भाव से पूछ लिया काशीराम ! तुम मात्र पुस्तक ले जाकर पुनः ले आते हो या उसे पढ़ते भी हो? काशीराम ने नम्रता पूर्वक कहा आप पुस्तक से कोई प्रश्न पूछ लीजिए, मैं पढ़ता हूँ या नहीं, वह स्वयं सिद्ध हो जाएगा। ऐसा जवाब सुनकर मुनिश्री को बहुत प्रसन्नता हुई। काशीराम की याद्दाश्त इतनी अपूर्व थी कि वे जिस पुस्तक को एक बार पढ़ लेते वह उन्हें पूरी तरह याद हो जाती । काशीरामजी जन्म से स्थानकवासी मान्यता के होने के कारण मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे। कई बार वे मूर्तिपूजक समाज के लोगों के साथ चर्चा में भी उतर जाते और मूर्तिपूजा का घोर विरोध करते हुए मूर्ति को मात्र पत्थर कहकर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ श्रुतसागर • २८ लोगों को मूर्तिपूजा नहीं करने हेतु प्रेरित करते। प्रतिदिन की भाँति एक दिन काशीरामजी एक पुस्तक अपने घर ले आए। संयोगवश उस दिन मुनिश्री के ध्यान में यह नहीं रहा कि काशीराम कौनसी पुस्तक ले जा रहा है। वह पुस्तक मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में थी। पुस्तक में जगह-जगह शास्त्रों व आगमों के अवतरण देकर मूर्तिपूजा शास्त्र सम्मत है, यह सिद्ध किया गया था। इतना ही नहीं, स्थानकवासी सम्प्रदाय की मान्यता वाले ग्रन्थों से भी कई उदाहरण देकर यह प्रमाणित किया गया था कि मूर्तिपूजा करनी चाहिए। मूर्तिपूजा को प्रमाणित करती इस पुस्तक को काशीराम ने तीन दिन तक अपने पास रखी और सात बार पदा । तीसरे दिन मुनिश्री ने काशीराम से पूछा- क्या इन दिनों तुम्हें पुस्तक पढ़ने का समय नहीं मिलता है? किसी भी पुस्तक को एक दिन में पढ़कर लौटा देने वाला व्यक्ति जब तीन-तीन दिन तक एक पुस्तक को अपने पास रखेगा तो किसी को भी आश्चर्य होना स्वभाविक ही है। ___ उस पुस्तक को पढ़ने के बाद काशीरामजी को जब यह पता चला कि मूर्तिपूजा शास्त्रसम्मत है तो वे चौंक उठे, उन्हें आश्चर्य हुआ कि इन सभी बातों को जानते हुए भी मुनिश्री मूर्तिपूजा का विरोध क्यों करते हैं? इस सम्बन्ध में उन्होंने मुनिश्री से पूछा तो मुनिश्री ने पहले तो कुछ तर्क देकर शान्त करने का प्रयास किया किन्तु काशीराम के प्रश्नों एवं तर्कों के सामने मुनिश्री निरुत्तर हो गये। आखिर उन्हें यह लगा कि पढ़े-लिखे युवक से वास्तविकता छिपाना सम्भव नहीं होगा, तब काशीरामजी से कहा- हाँ! मूर्तिपूजा शास्त्रसम्मत ही है। मुनिश्री की बात सुनते ही काशीराम को गहरा आघात लगा और फिर मुनिश्री से दूसरा प्रश्न किया- तो फिर आप मूर्तिपूजा का खंडन क्यों करते हैं? सत्य को क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? तब मुनिश्री ने अपनी अवस्था एवं सम्प्रदाय का हवाला देते हुए अपनी असमर्थता दर्शाई। उन्होंने कहा कि मैं अब अपना अंतिम समय शान्तिपूर्वक जीना चाहता हूँ इसलिए अब इन विवादों में पड़ना नहीं चाहता। मुनिश्री की बात सुनकर काशीराम को अपनी अज्ञानता का आभास हुआ और बहुत देर तक इस सम्बन्ध में मुनिश्री से चर्चा करते रहे । अन्ततः मुनिश्री को इस बात के लिये राजी कर लिया कि अब से आप मूर्तिपूजा का विरोध नहीं करेंगे। मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सत्य जानने के बाद काशीरामजी के मन में उस पुस्तक के लेखक से प्रत्यक्ष मिलकर अपनी जिज्ञासा शान्त करने की इच्छा जाग्रत हुई। मूर्तिपूजा सम्बन्धी उस पुस्तक के लेखक थे योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब, जिन्होंने जैन तत्त्वज्ञान, आत्मज्ञान, दर्शन आदि विभिन्न विषयों For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ मई - २०१३ पर अनेक पुस्तकों का सृजन किया था। योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज से मिलने काशीराम गुजरात की यात्रा पर निकले, किन्तु यहाँ आने पर जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि बहुत पहले ही आचार्यश्री का स्वर्गवास हो चुका है, तो मन ही मन दुःखी हुए। फिर उन्होंने आचार्यश्री के शिष्य पूज्य आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज से मिलकर अपनी समस्त जिज्ञासाओं को शान्त किया। उनकी प्रेरणा से काशीरामजी पालिताणा तीर्थ की यात्रा पर गए। सत्य जानने से पूर्व शत्रुजयतीर्थ की घोर टीका करने वाले काशीरामजी शत्रुजयतीर्थ में आदिनाथ भगवान का दर्शन कर पावन बने। शत्रुजय की यात्रा के पश्चात् पुनः तारंगातीर्थ पर पूज्य आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के दर्शन कर दीक्षा लेने की अपनी भावना उनके समक्ष रखी। पूज्य आचार्यश्री द्वारा माता-पिता और परिजनों की आज्ञा के बिना दीक्षा देने से मना करने पर काशीरामजी ने अन्त में कहा कि यदि आप दीक्षा नहीं देंगे तो मैं स्वतः ही साधु के वस्त्र धारण कर आपके चरणों में बैठकर साधना करूँगा। काशीरामजी की वैराग्य भावना देखकर आचार्यश्री ने अपने शिष्य जितेन्द्रसागरजी के पास दीक्षा लेने का सुझाव दिया। आचार्यश्री के निर्देशानुसार काशीरामजी ने पूज्य तपस्वी मुनि श्री जितेन्द्रसागरजी म. सा. के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद काशीराम का नाम मुनि श्री आनन्दसागरजी रखा गया। अपने परिजनों को सूचित किये बिना दीक्षा ग्रहण की थी, फलस्वरूप काशीराम के दीक्षित होने का समाचार सुनकर उनके परिजन गुजरात आये और काफी प्रयास करके उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें घर ले गये। घर पर भी काशीराम साधुजीवन ही जीने लगे तब अन्त में उनके परिजनों ने उन्हें दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान कर दी। अन्ततः विक्रम संवत् १९९४ पौष कृष्णपक्ष १० के परम पावन दिन को अहमदाबाद की पवित्र भूमि पर पूज्य आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी म. सा. के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की और मुनि श्री जितेन्द्रसागरजी म. सा. के शिष्य बने । दीक्षा के पश्चात् वे मुनि श्री कैलाससागरजी के नाम से विख्यात हुए। साधु जीवन के प्रारम्भिक काल से ही वे आत्मविकास और उज्ज्वल जीवन की प्रक्रिया को विस्तृत बनाने में लग गये। अपनी बौद्धिक प्रतिभा के कारण अल्प समय में ही आगमिक-दार्शनिक-साहित्यिक आदि ग्रन्थों का पूरी निष्ठा के साथ, For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - २८ १५ अध्ययन किया। अपूर्व लगन एवं तन्मयता के कारण कुछ ही वर्षों में मुनिश्री की गणना जैन समाज के विद्वान साधुओं में होने लगी। तलस्पर्शी अध्ययन के साथसाथ मुनिश्री की गुरु सेवा भी अपूर्व थी। गुरु के प्रति समर्पण भाव के कारण गुरुदेव की असीम कृपा हर समय उनके साथ थी । मुनिश्री की योग्यता को देखते हुए विक्रम संवत् २००४ में गणिपद, २००५ में पंन्यासपद, २०११ में उपाध्यायपद तथा संवत् २०२२ में साणंद में आचार्यपद से विभूषित किया गया। ज्योतिषी की भविष्यवाणी दिन - दिन फलिभूत होती जा रही थी और आचार्यश्री की उन्नति भी निरन्तर गतिशील थी। विक्रम संवत् २०२६ में समुदाय का समग्र भार आचार्यश्री पर आया और वे गच्छनायक बने । वि. सं. २०३९ ज्येष्ठ शुक्लपक्ष ११ के शुभदिन महुड़ी तीर्थ की पावन भूमि पर विशाल जनसमूह की उपस्थिति में विधिवत सागर समुदाय के गच्छाधिपति पद से विभूषित किया गया। आप शिल्पशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, जिसके कारण जिनबिम्ब एवं जिनालय निर्माण के सम्बन्ध में श्रमण एवं श्रावकवर्ग सदैव उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते रहते थे। उच्च कोटि के विद्वान और ऊँचे पद पर आसीन होते हुए भी आपमें कभी भी अभिमान की सामान्य झलक देखने को नहीं मिली। इसी निःस्पृहता एवं निरभिमानता के गुणों के कारण आप लोकप्रिय थे। महेसाणा की पावन भूमि पर महाविदेह के महाप्रभु श्री सीमन्धरस्वामी भगवान का विशाल जिनालय एवं विराट प्रतिमा की स्थापना भी पूज्य गच्छाधिपति की प्रेरणा से ही हुई थी। श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा के निर्माण में भी पूज्यश्री की प्रेरणा रही है । जिनशासन की अपूर्व लोकप्रियता और ऊँची प्रतिष्ठा पाने पर भी आपने कभी अपने स्वार्थ के लिये उसका उपयोग नहीं किया। आपका जीवन अत्यन्त सादगीपूर्ण था। संयमजीवन ग्रहण करने के पश्चात् से ही आपने एकासणा तप का पालन प्रारम्भ कर दिया था जिसका लगभग चार दशक तक पालन किया । आप हमेशा मात्र दो द्रव्यों से ही आहार कर शरीर का निर्वहण करते थे। दीक्षा के थोड़े समय बाद ही आपने मिठाई का भी त्याग कर दिया था जिसका जीवन पर्यन्त निर्वाह किया । उग्रविहार और शासन की अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त रहते हुए भी आप अपने आत्मचिंतन, स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिये समय निकाल लेते थे। आप आत्महित के लिये सदा जाग्रत रहते थे। आप सभी को आत्मश्रेय के लिये सदैव जाग्रत रहने का महामंत्र देते थे । आपमें परमात्मा के प्रति अपार श्रद्धा थी। आपके रोम-रोम में प्राणी मात्र के प्रति मैत्री की भावना भरी हुई थी। आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करते थे। कभी भी आपको व्यर्थ में समय For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मई . २०१३ व्यतीत करते हुए किसी ने नहीं देखा। अपने संयम जीवन के ४७ वर्षों में आपने गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि विभिन्न प्रान्तों में विचरण कर मानव के अन्धकारमय जीवन को आलोकित करने का अनुपम कार्य किया। आपके पावन उपदेशों एवं उज्ज्वल जीवन से प्रभावित होकर कई महान आत्माओं ने संयम ग्रहण किया। आपका विशाल शिष्य-प्रशिष्य परिवार आज जिनशासन के उन्नयन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहा है। शासन के महान प्रभावक के रूप में आप सदियों तक भुलाए नहीं जा सकेंगे। आपश्री के करकमलों से हुई शासनप्रभावना की सूची बहुत लम्बी है। अनेक अंजनशलाकाएँ, जिनमन्दिर प्रतिष्ठा, जिनमन्दिरों का जिर्णोद्धार, उपधानतप की आराधनाएँ आदि करवाकर आपने आजीवन जिनशासन की सेवा की है। किन्तु आपकी सच्ची पहचान आपका विरल व्यक्तित्व ही रहा है। आपके सान्निध्य में जो भी आया वह आपका ही होकर रह गया। आपका अंतरमन जितना निर्मल और करुणामय था उतना ही आपका बाहरी व्यवहार भी। विक्रम संवत् २०४१ ज्येष्ठ शुक्लपक्ष २ के दिन प्रातःकाल का प्रतिक्रमण पूर्णकर प्रतिलेखन करने के लिये आपने कायोत्सर्ग किया। बस, वह कायोत्सर्ग पूर्ण हो उससे पहले ही आपकी जीवनयात्रा पूर्ण हो गई। सब देखते ही रह गये और आपने सबके बीच से अनन्त बिदाई ले ली। पूज्यश्री का अन्तिम संस्कार श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में किया गया। उनके अग्निसंस्कार स्थल पर श्वेत संगमरमर के पत्थर से निर्मित गुरुमन्दिर का निर्माण कराया गया है। उनके अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के महावीरालय में प्रतिष्ठित श्री महावीरस्वामी भगवान के ललाट को सूर्य किरणें आलोकित करती हैं। यह अलौकिक दृश्य देखने के लिये प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में श्रद्धालु जमा होते हैं। कई सदियों के बाद ऐसे विरल विभूति, विराट व्यक्तित्व, समर्थ शासन उन्नायक का पृथ्वी पर अवतरण होता है जो स्वयं के आत्मकल्याण के साथ-साथ दूसरों को भी प्रेरित करता है। अपूर्व पुण्यनिधि, शासन प्रभावक, महान गच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. को उनके जन्मशताब्दी वर्ष में हम अपनी श्रद्धासुमन अर्पित करें एवं उनके चरणकमलों में भावपूर्ण कोटिशः वन्दना-नमन करें। For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लोढाधाम मंडन श्री सीमंधर जिन स्तुत्यष्टक मुनि श्री विरागसागरजी म.सा. सीमंधरा आ विश्वना सवि देवना पण देव छे सुर असुर किन्नर मानवो निशदिन करता सेव छे तने पामीने खुल्या प्रभु! आ द्वार मुज सद्भाग्यना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ।। हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना | 19 || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीमंधरा ! तुज आँखडी निर्मल अने अविकारी छे सीमंधरा ! तुज देहडी सुवर्ण पावनकारी छे क्यारे प्रभु ! तुज सम बनुं बस एज छे मुज भावना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||२| सीमंधरा ! सीमंधरा ! मुज दिलमहि ए जाप छे संस्मरण करता ताहरुं क्षय थाय सवि मुज पाप छे उल्लसित यो मुज आतमा हे नाथ! करी तुम दर्शना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावभी तने वंदना । । हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||३|| सीमंधरा ! तुज नयनमां अमीरस सदाये छलकतो करुणा प्रभु! तुज पामीने आतम सदा मुज मलकतो आतुरता मुज मनमहि क्यारे करूं तुज स्पर्शना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||४|| For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीमंधरा ! मुज जीवनमां केवा भयंकर दोष छे मद मान माया छोडावजे अंतर तणो उद्घोष छे कृपा करी हे नाथ! तुं ऊच्छेदजे मुज वासना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||५|| सीमंधरा मुज मनमहि मुज तनमहि अंतरमहि मुज श्वास- श्वासे रोम-रोमे जीवननी प्रति क्षणमहि संसारना सहु बंधनो त्यागी करूं तुम साधना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||७|| मई २०१३ सीमंधरा तुज पास छे लाखो-करोड़ो देवता करे भक्ति नाटारंभ जे वळी रात-दिन तुम सेवता तेडावजे एक देव मोकली नाथ! सुणजे प्रार्थना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || ६ || For Private and Personal Use Only - सीमंधरा करुं विनती समभाव भुजने आयजे भवोभव करेलां कर्मना समुदायने प्रभु कापजे वीतरागता प्रगटावजे मुज हृदयनी अभ्यर्थना हे लोढाधाम सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना || हे महाविदेह सीमंधरा ! करूं भावथी तने वंदना ||८ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કાપરડાજી તીર્થ કનુભાઈ શાહ ભારતવર્ષમાં ખાસ કરીને ગુજરાત અને રાસ્થાનમાં જૈન તીર્થો વિશેષરૂપથી જોવા મળે છે. આજે જે પ્રદેશ રાજસ્થાન તરીકે ઓળખાય છે તે પૂર્વમાં મારવાડ તરીકે ઓળખાતો હતો, અને આ પ્રદેશમાં નિવાસ કરનારા લોકો મારવાડીઓ તરીકે ઓળખાતા. મારવાડમાં જોધપુર, બિકાનેર, જેસલમેર, નાગોર, સિરોહી, મેડતા, કિશનગઢ, જયપુર, અજમેર તથા અન્ય શહેરોમાં વસનારા તમામ મારવાડી કહેવાતા. મારવાડી એ વ્યાપારી કોમ છે. મારવાડી પ્રજા ધર્મકાર્યમાં લાખો-કરોડો રૂપિયાનો ખર્ચ કરવામાં પાછું વાળીને જોતા નથી. અતિ પ્રાચીન કાપરડાજી તીર્થ તથા દેશના અન્ય પ્રદેશોમાં બંધાયેલ ભવ્ય મંદિર, ધર્મશાળાઓ તથા સાર્વજનિક કાર્યોમાં એમને સારી એવી સંપત્તિનો સદુપયોગ કર્યો છે. કાપરડાજી તીર્થ જોધપુરથી પ૦ કિ. મી. ના અંતરે આવેલું છે. આ તીર્થ જોધપુર-જયપુર માર્ગ પર આવેલ છે. અહીં ધર્મશાળા તથા ભોજનશાળાની સગવડ છે. અહીયાં એક સુંદર જૈન મંદિર તીર્થરૂપ છે. આ ગામમાં અત્યારે તો મામૂલી વસ્તી છે. પરંતુ આ મંદિરના અદ્ભુત શિલ્પ પરથી જોનારને ખ્યાલ આવે કે આ સ્થાન એક વખત સારી એવી જાહોજલાલીવાળું નગર હશે, આ ગામમાં થોડા સૈકાઓ પહેલાં કાપડનું બજાર ભરાતું હતું. કાપડનું બજાર ભરાવાના કારણે આ ગામ 'કાપડહાટકે કર્પટવાણિજ્યના નામે ઓળખાવા લાગ્યું. આ શબ્દનું અપભ્રંશ થતાં કર્પટહાટ, કર્પટોટક, કાપડ, કાપરડા તરીકે પ્રચલિત થયું. ચૌદમા સૈકામાં આ ગામ હતું એમ જાણવા મળે છે. ગામમાં શ્રી સ્વયંભૂ પાર્શ્વનાથ પ્રભુજીનું ચાર માળનું વિશાળ ગગનચુમ્બી ભવ્ય મંદિર છે. શ્રી સ્વયંભૂ પાર્શ્વનાથ પ્રભુની નીલપિતા વર્ણની પદ્માસનસ્થ પ્રતિમાજી મૂળનાયક તરીકે બિરાજમાન છે. આ મંદિર વિ. સં. ૧૯૭૪માં જેતારણવાસી ઓસવાલ ભાણાજી ભંડારીએ બનાવડાવ્યું હતું. શ્રી ભંડારીજીએ અહીં મંદિર કેવી રીતે બનાવડાવ્યું તેની એક ચમત્કારિક કથા સંકળાયેલી છે : શ્રી ભાણાજી ભંડારીની જોધપુરના મહારાજા શ્રી ગજરાજસિંહે રાજ્ય તરફથી જેતારણના સરકારી અધિકારી તરીકે નિમણૂંક કરી હતી. ભાણાજી ભંડારીએ સુંદર કામગીરી બજાવવા માંડી. આથી કોઈ ઈર્ષાળુ રાજ કર્મચારી રાજા ગજરાજસિંહને ખોટી માહિતી આપી કાન ભંભેરણી કરી. આ કારણે રાજાએ વિચાર કર્યા વિના For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० मई - २०१३ ભાણાજી ભંડારીને તત્કાલ જોધપુર આવી જવા ફરમાન જારી કર્યું. મહારાજાની આજ્ઞાનું પાલન કરવા ભંડારી તુરત જ જોધપુર જવા નીકળી પડ્યા. રસ્તામાં ભોજનનો સમય થતાં કાપરડા ગામમાં રોકાયા. ભોજન તૈયાર થતાં ભંડારીને જમવાનું આમંત્રણ આપ્યું. પરંતુ ભાણાજી ભંડારીએ જમવાની ના પાડી. જમવાનું ના પાડવાનું કારણ પૂછતાં ભંડારીએ જણાવ્યું કે જ્યાં સુધી હું જિનપૂજા ન કરું ત્યાં સુધી ભોજન ગ્રહણ ન કરવાની મારી ટેક છે. આવી દઢ પ્રતિજ્ઞા જાણીને સાથેના માણસોએ ગામમાં જિનમૂર્તિ માટે તપાસ આદરી. ગામમાં જૈન પતિજી પાસેથી જિન પ્રતિમા મળી આવી. ભંડારીએ જિનપૂજાની ટેક પાળી ભોજન ગ્રહણ કર્યું. આ સમયે યતિજીએ ભંડારીજીને મહારાજાને મળવા જવાનું કારણ પૂછુયું. ભંડારીજીએ યતિજીને બધી વાત કરી. પતિજીએ જણાવ્યું કે તમે ગભરાશો નહિ, નિર્દોષ છૂટશો. ભંડારીજી જોધપુર પહોંચ્યા. રાજાએ ભાણાજી ભંડારીનું બહુમાન કર્યું. ભંડારીજી નિર્દોષ થઇને આવ્યા પછી યતિજીએ કહ્યું, “ભંડારીજી અહીં એક મંદિર બંધાવો.” ભંડારીજીએ કહ્યું “મંદિર ખુશીથી બનાવું. પરંતુ મારી પાસે એટલી સંપત્તિ નથી.' યતિજીએ પૂછયું, “કેટલો ખર્ચ કરશો? ભંડારીએ રૂપિયા પાંચસો ખર્ચ કરવાનું જણાવ્યું.” યતિજીએ આ રૂપિયા એક વાસણમાં ભરીને ઢાંકી દીધા. ત્યારબાદ જણાવ્યું કે આમાંથી ખર્ચ કરજો પણ અંદર જોશો નહિ કે કેટલા રૂપિયા બાકી રહ્યા છે. વિ. સં. ૧૬૭૫માં મંદિર બંધાવવાનું શરૂ થયું અને વિ. સં. ૧૬૭૮માં મંદિરનું કાર્ય પૂર્ણ થયું. પરંતુ ભંડારીએ કહલવૃત્તિ અનુસાર વાસણ ઊંધું કરી રૂપિયા ગણી જોયા. ત્યારબાદ પૈસા ન નીકળ્યા. જે રૂપિયા પાંચસો હતા તે ખર્ચાઈ ગયા. શેઠને પાછળથી ખૂબ પશ્ચાત્તાપ થયો, પરંતુ તેનો કોઇ ઉપાય હવે હતો નહિ. આ જિનાલયમાં બિરાજમાન કરવા પ્રતિમાજીની શોધ ચાલતી હતી. એ સમયે આચાર્ય ભગવંત શ્રી જિનચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ. સાહેબને સ્વપ્નમાં ત્રણ બાવળની તળેટીમાં ત્રણ વાંસની ભૂમિ નીચે શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પ્રતિમા હોવાનો સંકેત મળ્યો અને સંવત ૧૬૭૪ના પોષ વદિ ૧૦ના દિવસે આ મૂર્તિ પ્રગટ કરાવી. આવી રીતે સ્વપ્ન સંકેતથી પ્રભુ પ્રગટ થયેલા હોવાથી શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુ શ્રી સ્વયંભૂ પાર્શ્વનાથ' તરીકે ઓળખાયા. કાપરડા ગામના નામ પરથી પણ આ પાર્શ્વનાથ “શ્રી કાપરડા પાર્શ્વનાથ' તરીકે ઓળખાય છે. જ્યારે મંદિર બંધાવવાની ચર્ચા સોમપુરા સાથે ચાલતી હતી ત્યારે ભંડારીજીએ જણાવ્યું કે આ મંદિર ભવ્ય અને વિશાળ બનવું જોઇએ. સોમપુરાએ જણાવ્યું કે રાણકપુરનું મંદિર ત્રણ માળનું છે જ્યારે આ મંદિર ચાર માળનું બનાવીએ, પરંતુ . For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર૧ श्रुतसागर - २८ સોમપુરાની પુરી વાત સાંભળ્યા વિના જ ભંડારીજીએ આજ્ઞા આપી કે મંદિર અપૂર્વ અને ભવ્ય બનવું જોઇએ. રાણકપુરનું મંદિર ત્રણ મજલાનું ભવ્ય મંદિર છે તે જંગલમાં ઝાડીઓની વચ્ચે હોવાને કારણે દૂરથી નજરે પડતું નથી જ્યારે કાપરડાજીનું ચાર માળનું મંદિર સપાટ પ્રદેશમાં હોઇ યાત્રિકો ઘણા દૂરથી જોઇને મંદિરની ધજાના દર્શનનો લાભ લે છે. મૂળનાયક શ્રી સ્વયંભૂ પાર્શ્વનાથજી ઉત્તર સન્મુખ છે. પૂર્વમાં શાન્નિનાથજી, અભિનંદન સ્વામી દક્ષિણમાં, પશ્ચિમમાં મુનિસુવ્રત સ્વામી, બીજા માળે - શ્રી ઋષભદેવ, શ્રી અરનાથ, શ્રી વીરપ્રભુ અને શ્રી નેમિનાથજી છે. ત્રીજા માળે - શ્રી નમિનાથ, શ્રી અનંતનાથ, શ્રી નેમિનાથ અને શ્રી મુનિસુવ્રતસ્વામી છે. ચોથા માળે - શ્રી પાર્શ્વનાથ, શ્રી મુનિસુવ્રતસ્વામી, શ્રી શીતલનાથ, શ્રી પાર્શ્વનાથજી અને સંપ્રતિ મહારાજાના સમયના શ્રી શાંતિનાથજી છે, આ પણ ચમત્કારિક છે. આ જિનપ્રસાદની ઊંચાઈ ૯૮ ફૂટની છે. તીર્થ યાત્રા કરવા લાયક પરમ આનંદ અને શાંતિનું ધામ છે. આ ચૌમુખી જિનાલયનું બાંધકામ તથા શિલ્પ અદ્વિતીય અને અપૂર્વ છે. સૈકાઓ બાદ વિ. સં. ૧૯૭પના મહાસુદિ પના દિને જિનાલયનો જિર્ણોદ્ધાર શાસન સમ્રા શ્રી વિજયનેમિસૂરીશ્વરજી મહારાજાના પ્રયાસોથી થયો હતો. તેમના જ હસ્તે આ તીર્થની પુનઃ પ્રતિષ્ઠા થઇ. દર વર્ષે ચૈત્ર સુદ પના દિને અહીં વિરાટ મેળો ભરાય છે. પ્રતિમાજીના પરિકરમાં નીચે પ્રમાણે લેખ છે : संवत १६७८ वर्षे वैशाख सित १५ तिथौ सोमवारे स्वाती महाराजाधिराज महाराज श्री गजसिंह विजयराज्ये उकेशवंशे राय लाखण सन्ताने भंडारी गोत्रे अमरापुत्र भानाकेन भार्या भक्तादेः पुत्ररत्न नारायण-नरसिंह-सोढा पौत्र ताराचंदखंगार-नेमिदासादि परिवारसहितेन श्रीकर्पटहेटके स्वयंभू पार्श्वनाथ चैत्ये श्रीपार्श्वनाथ [વરિત પ્રતિકિત] संवत १६८८ वर्षे श्री कापडहेडा स्वयंभू पार्श्वनाथस्य परिकरः कारितः प्रतिष्ठितः श्री जिनचंद्रसूरिभिः।।' (અનુસંધાન પેજ નં. ૨૯) १. श्री कापरडाजी तीर्थ पृ.८ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषार्थ चतुष्टय : जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में डॉ. उत्तमसिंह ___ 'पुरुषार्थ चतुष्टय' की अवधारणा विशेषतः हिंदू मूल्य-दर्शन की आधारशिला है। यह जीवन की वह थाती है, जिसके माध्यम से व्यक्ति संसाररूपी रंगमंच पर अभिनय भी कर सकता है और संसार-सागर से आत्यन्तिक विश्राम भी ले सकता है। यह प्राचीन भारतीय संस्कृति का तेजोदीप्त भास्कर है। जिससे व्यक्ति स्वयं आलोकित तो होता ही है साथ ही साथ अखिल ब्रह्माण्ड को भी प्रकाशित करता पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों के योग से निष्पन्न हुआ है- पुरुष+अर्थ। यहाँ पुरुष का तात्पर्य संसार के सबसे अधिक विवेकशील प्राणी से तथा अर्थ का तात्पर्य चरम लक्ष्य से है। अतः पुरुषार्थ का अर्थ हुआ संसार के सबसे अधिक विवेकशील प्राणी का चरम लक्ष्य । अब प्रश्न उठता है कि जीवन का चरम लक्ष्य क्या है ? समाधान हमें सुख के रूप में मिलता है। विचारकों ने दो प्रकार के सुखों को स्वीकारा है- भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिक सुख के अन्तर्गत सांसारिक आकर्षण और ऐशो-आराम की सामग्री मानी गई है तो आध्यात्मिक सुख के अन्तर्गत त्याग और तपस्या । भौतिक अथवा लौकिक सुख के अन्तर्गत अर्थ और काम हैं तो आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक सुख के अन्तर्गत धर्म और मोक्ष हैं। पुरुषार्थ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही तत्त्व निहित हैं। इसके अन्तर्गत मनुष्य लौकिक उपभोग के साथ धर्म का अनुसरण करते हुए ईश्वरोन्मुख होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः भारतीय जीवनदर्शन इन दोनों प्रवृत्तियों का संतुलित, सम्मिलित और समन्वित स्वरूप है। पुरुषार्थ को परिभाषित करते हुए जैन संस्कृति में कहा गया है- 'पौरिषं पुनरिह चेष्टितम्'। तात्पर्य यह है कि मनुष्य यदि अपना प्रयोजन (जो मोक्ष है) प्राप्त करना चाहता है तो उसे इसके लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। इसके लिए किसी प्रकार की दैवीय सहायता उसे उपलब्ध नहीं है। इस आदर्श की प्राप्ति का एक ही मार्ग है कि इसे ठीक उसी तरह प्राप्त किया जाय जैसे अर्हतों, ऋषियोंमुनियों ने प्राप्त किया है। इस प्रकार जैनदर्शन में पुरुषार्थ का आशय मानवचेष्टा से है- जिसमें व्यक्ति For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - २८ २३ को स्वतन्त्रता भी मिली हुई है और उसका उत्तरदायित्व भी उसे ही निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है किन्तु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसीका है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति/देवता/ईश्वर आदि का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह उसकी क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है। जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। इस निजरूप को प्राप्त करना ही मनुष्य का प्रयोजन/आदर्श है। इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जैनदर्शन के अनुसार धीर पुरुष को क्षणभर का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए' कुशल व्यक्ति वही है जो बिना प्रमाद के पुरुषार्थ में विश्वास करता है इस प्रकार जैन साहित्य में हमें स्थान-स्थान पर प्रमाद की निन्दा और पुरुषार्थ की प्रशंसा मिलती है। ज्ञानार्णव में मोक्ष-चर्चा के चलते पुरुषार्थ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि प्राचीनकाल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं धर्मश्चार्थश्चकामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः । पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः।। किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद अर्थ एवं काम पुरूषार्थ सहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं। अतः ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिये ही प्रयत्न करने को कहा गया है, जो संयमपूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। समणसुत्तं में भी कहा गया है- 'असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।' अथवा असंयमानिवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम् । परमात्मप्रकाश में भी उपरोक्त चारों पुरुषार्थों में से मोक्ष को ही उत्तम पुरुषार्थ माना गया है। क्योंकि अन्य किसी में ‘परम सुख नहीं है। वस्तुतः जैनदर्शन इस प्रकार केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है तथा अर्थ और काम का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि 'भारतीय चिन्तन में जहाँ पुरुषार्थ-चतुष्टय प्रतिबिम्बित होता है, वहाँ जैनदर्शन-दर्पण में पुरुषार्थ-द्वय (धर्म और मोक्ष) अवलोकित होता है । यहाँ बाकी के दो पुरुषार्थों को धर्म के साथ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ संयम और मर्यादा में बाँधकर रखा गया है। जिनका गृहस्थ उपासकों के लिए मर्यादानुकूल निष्ठापूर्वक सम्यक् उपभोग बताया गया है। योगशास्त्र में आचार्य चन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्म और काम पुरुषार्थों का इस प्रकार सेवन करें कि कोई किसी का बाधक न हो' फिर भी इतना तो मानना ही पडेगा कि जैन मूल्यों में अर्थ और काम को कुल मिलाकर हेय दृष्टि से देखा गया है और इनकी आवश्यकता पर बहुत ही कम बल दिया गया है। मई २०१३ For Private and Personal Use Only - अतः पूर्णतः निवृत्तिपरक होने के कारण जैनदर्शन में केवल दो ही पुरुषार्थोंमोक्ष और धर्म पर बल दिया गया है। मोक्ष परम पुरुषार्थ है और धर्म मोक्ष का राजमार्ग है। धर्म जीवों को संसार के दुःखों से निकालकर उन्हें उत्तम सुख धारण कराता है- ‘संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे' ।' यहाँ उत्तम सुख का तात्पर्य मोक्ष-सुख से है। क्योंकि मोक्ष प्राप्त होने पर ही जीव जन्म-जरा-मरण के दुःखों से बच सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ 'आज्ञायां मामको धर्मः' सूत्र द्वारा अपने महाकाव्य सम्बोधि में धर्म को परिभाषित करते हैं। इस सूत्र का आगमिक स्त्रोत आयारो में देखा जा सकता है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है- 'आणाए मामगं धम्मं'।' अर्थात् आज्ञा में ही धर्म का गूढ तत्त्व छिपा हुआ है। इसके रहस्य को जाननेवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। इस तरह जैनाचार्यों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है । कभी इसे 'वत्थुसहावो धम्मो' कहा गया है तो कभी इसे 'खमादिभावो य दसविहो धम्मो' कहा गया है। कभी ' चारित्रं खलु धम्मो' कह कर इसे परिभाषित किया गया है तो कभी 'जीवाणं रक्खणं धम्मो' कहकर इसके अहिंसा पक्ष पर बल दिया गया है । अन्ततः धर्म की ये सभी परिभाषाएँ 'वत्थुसहावो धम्मो' इस परिभाषा के विस्तार के ही विभिन्न रूप हैं । क्योंकि क्षमा आदि सारे धर्म आत्मा के ही स्वभाव हैं। इस स्वभाव की प्राप्ति में सहायक तत्त्वों का उपचार रूप से धर्म में ही समावेश हो जाता है। अतः हम यहाँ निर्बाधरूप से कह सकते हैं कि मोक्ष जैनदर्शन का केन्द्रबिन्दु है। जिसका आशय दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति और चरम सुख प्राप्त करना है। इसीलिए यहाँ मोक्ष को पुरुषार्थ में सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है, और क्योंकि इसकी प्राप्ति केवल धर्म-मार्ग से ही सम्भव है इसलिए धर्म भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। धर्म यद्यपि मोक्ष की अपेक्षा से केवल एक साधन-मूल्य है किन्तु साधन-मूल्य होने के नाते वह मोक्षमार्ग भी है । अतः उसका मूल्य मोक्ष से कतई कम नहीं है । धर्म और मोक्ष एक दूसरे से साधन-साध्य रूप में जुडे हुए हैं। एक मार्ग है तो Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - २८ दूसरा मार्ग-फल। एक उपाय है तो दूसरा उपेय है। अर्थात् गन्तव्य (मोक्ष) वह प्रयोजन है जिस तक केवल मार्ग (धर्म) द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। अस्तु पुरुषार्थ भारतीय व्यक्तित्व एवं समाज निर्माण का आधार ही नहीं अपितु यह हमारी संकृति की आत्मा है। जिसमें निहित अन्तर्भाव को समझकर इसकी अनुपालना करने से धरती पर ही स्वर्ग की प्राप्ति संभव है। संदर्भ १. आयारो-विश्वभारती लाडनूं से प्रकाशित, पृष्ठ-८८, गाथा-२/९५ २. ज्ञानार्णव. ३/४, शुभचन्द्रकृत, परमश्रुत प्रभावकमण्डल अगास ३. समणसुत्तं, सर्व सेवा संघ प्रकाशन-वाराणसी, गाथा-१२९ ४. परमात्मप्रकाश-योगिन्दुदेवकृत, परमश्रुत प्रभावक मण्डल-अगास, गाथा-२/३ ५. अन्योन्या प्रतिबंधेन त्रिवर्गमिति साधयेत्। -योगशास्त्र, १/५२ ६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार-वाराणसी से प्रकाशित गाथा-१/२ ७. आयारो-विश्वभारती लाडनूं से प्रकाशित, पृष्ठ-२३८. उद्देस-६, गाथा-२.४८ संदर्भ ग्रन्थ १. प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास- जयशंकर मिश्र, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस - दिल्ली २. तत्वार्थसूत्र- वाचक उमास्वातिकृत, जैन साहित्य प्रकाशन - अहमदाबाद ३. ज्ञानार्णव- शुभचन्द्रकृत, परमश्रुत प्रभावकमण्डल - अगास ४. परमात्मप्रकाश- योगिन्दुदेवकृत, परमश्रुत प्रभावक मण्डल - अगास ५. योगशास्त्र- कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत ६. जैन आचार दर्शन- डॉ. रमणलाल ची. शाह ७. जैन धर्म दर्शन- डॉ. रमणलाल ची. शाह ८. ज्ञानाञ्जलि- मुनिश्री पुण्यविजयजी म.सा., सागरगच्छ जैन उपाश्रय - बरोडा ९. समणसुत्तं- सर्व सेवा संघ प्रकाशन- वाराणसी १०. आयारो- जैन विश्वभारती-लाडनूं द्वारा प्रकाशित ११. भगवतीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, स्थानांगसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र आदि। For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोचर व्यवहारी का समय निर्णय अगरचंदजी नाहटा श्री विजयधर्मसूरिजी सम्पादित ऐतिहासिक रास संग्रह (सं. १९७६ प्रकाशित ) भाग १ में सर्व प्रथम तपागच्छीय कवि गुणविजयरचित कोचर व्यवहारी रास प्रकाशित हुआ है। जिसे कवि ने सं. १६८७ आसोज सुदि ९ को डीसा नगर में रचा था। यद्यपि कवि ने कोचर व्यवहारी किस संवत् में हुए इसका कोई स्पष्ट काल निर्देश नहीं किया है, फिर भी रास में उल्लिखित कोचर व्यवहारी से सम्बन्ध रखनेवाले सुमतिसाधुसूरि और देपाल का उल्लेख होने से कोचर व्यवहारी का समय, उल्लिखित दो व्यक्तियों के समयानुसार सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ठहरता है ! रास- सार में आचार्य श्री विजयधर्मसूरिजी ने भी उनके उस समय में होने में कोई आपत्ति नहीं दर्शाई, प्रत्युत घटना की पुष्टि अन्य प्रमाणों द्वारा फुटनोट में की गई है, परंतु जबसे हमने खरतरगच्छ की प्राचीन पट्टावली' जो कि सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की लिखी हुई है, जिनोदयसूरि (१४१५-३२) के सम्बन्ध में 'वर्त्तितद्वादशग्रामामारिघोषणेन सुरत्राणसनाखत सा. कोचरश्रावकेण सलखणपुरे कारितप्रवेशोत्सवानां' लिखा देखा तभी से कोचरसाह के १६वीं शताब्दी में होने के विषय में सन्देह हो गया । सूरिजी के उपर्युक्त ग्रंथ (रास और राससार) एवं अन्य प्रमाणों पर विशेष विचार करने पर हमें हमारी शंका एक नवीन ऐतिहासिक सत्य की ओर ले जाती हुई ज्ञात हुई, जिसके विषय में यहाँ विशेष विचारणा की जाती है। १. सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में लिखित खरतरगच्छ पट्टावली में कोचरसाह के जो विशेषण लगाए हैं वे कोचर व्यवहारी रास के विषय से बिलकुल मिलते हैं। यथा :- १. बारह गावों में अमारि घोषणा, २. सुरत्राण सनाखत, ३. सलखणपुर में । अतः रासनायक और पट्टावली में उल्लिखित कोचरसाह के एक होने में कोई सन्देह नहीं रह जाता ! ऐसी अवस्था में कोचरसाह का समय सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध न होकर तत्कालीन लिखित पट्टावली के कथनानुसार श्री जिनोदयसूरिजी के समकालीन - १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होना विशेष प्रमाणित होता है । रास की रचना पट्टावली से १५० वर्ष पश्चात् हुई है; अतः उसका लेखन निश्चित रूप से स्खलना - रहित नहीं कहा जा सकता । १. महोपाध्याय जयसागरशिष्य महोपाध्याय सोमकुंजरशिष्य देवनंदन - महिमारत्न लिखित । For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर - २८ २७ २. रास- सार के पृ. ३ में रास में उल्लिखित कोचरसाह के सहयोगी साजणसी को शत्रुंजयोद्धारक सुप्रसिद्ध समरासाह का पुत्र सज्जनसिंह बतलाया गया है । इससे भी कोचरसाह का सोलहवीं शताब्दी में होना संभव नहीं, क्योंकि समरासाह ने सं. १३७१ में शत्रुंजय का उद्धार कराया । उसके पुत्र का सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विद्यमान रहना असंभव है। खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार १५वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ही उसका समय विशेष संगत है! जो कि निम्नोक्त विचारणा से विशेष प्रमाणित हो जाता है। शत्रुंजय पर सं. १४१४ का एक लेख विद्यमान है, वह समरासाह और उसकी धर्मपत्नी की मूर्ति पर है जिसे उपर्युक्त सज्जनसिंह और उसके भाई सालिग ने बनवाया था, लेख इस प्रकार है : “संवत १४१४ वर्षे वैशाख सुदि १० दिने गुरौ संघपतिदेशलसुत सा० समरा समर श्रीयुग्मं सा० सालिग सा० सजनसिंहाभ्यां कारितं प्रतिष्ठितं श्रीकक्कसूरिशिष्यैः श्रीदेवगुप्तसूरिभिः शुभं भवतु " (जैन ऐतिहासिक गूर्जर काव्य संचय राससार पृ. १६६ ) इतना ही क्यों ? सज्जनसिंह की मृत्यु भी अन्य एक लेख से सं. १४६८ से पूर्व प्रमाणित होती है वह लेख इस प्रकार है : . “संवत् १४६८ वर्षे आषाढसुदि ३ रवौ उपकेशज्ञातौ वेसटावन्ये चिंचटगोत्रे सा. श्रीदेसल सुत साधु श्री समरसिंह नन्दन सा. श्री सज्जनसिंह सुत सा. श्री सगरेण पितृमातृश्रेयसे श्रीआदिनाथचतुर्विंशतिजिनपट्टकः कारितः श्रीउपकेश गच्छे ककुदाचार्यसंताने प्रतिष्ठितं श्री देवगुप्तसूरिभिः" ( जैन धातुप्रतिमा लेखसंग्रह भाग. २, ले. ५६०) ३. रासकार ने कवि देपाल को देसलहरा समरा सारंग के घर का याचक भी लिखा है, इससे हमारा कथन मान लेने पर कवि देपाल का सोलहवीं शताब्दी १. पृ. ८ में 'समरनो पुत्र सज्जनसिंह ए ज रासमां वर्णवेल साजणसिंह छे।' सूरिजी ने संवत् १५१६ लिखित स्वर्ण कल्पसूत्र की प्रशस्ति से साजनसी के वंशानुक्रम के ९ श्लोक और वंशवृक्ष देकर अच्छा प्रकाश डाला है, पर प्रशस्ति पूरी देकर यदि विचार किया जाता तो हमारे खयाल से यह भूल नहीं होती । यह प्रशस्ति अपूर्ण देने से दूसरे किसी को भी अद्यावधि इस स्खलना के सम्बन्ध में विचार करने का अवसर मिला ज्ञात नहीं होता। और हम भी सज्जनसिंह की कौनसी पीढी में शिवशंकर हुए जिनकी पत्नी देवलदे ने प्रस्तुत कल्पसूत्र वा वित्तसार को दोहराया, कह नहीं सकते For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ के पूर्वार्द्ध में होना सिद्ध नहीं होता, क्योंकि समरासाह का समय १३७१ से १४१४ निश्चित है, पर इसके विषय में विचार करने पर ज्ञात हुआ कि वह रासकार की भूल है । और वह भूल संभवतः किम्वदन्तियाँ और देपालकृत समरा सारंग के कडखे के कारण हुई होगी। श्रीयुत् मोहनलाल दलीचंद देसाई महोदय ने जैनयुग, वर्ष ५. अं. ९-१० वैशाख, ज्येष्ठ के अंक में उपर्युक्त " कवि देपालकृत समरासाह का कडखा" प्रकाशित किया है। देसाई महोदय ने उस पर एक नोट लगा कर उपर्युक्त आपत्ति का निवारण कर दिया है, जो निम्नोक्त है : " कवि देपाले मांगरोलना सरोवरनी पाळे चारणो पासे जे जूना कडखो कवित्त सांभळ्या ते अहीं नोंधेल छे. ते कवित्त करनारा एकनुं नाम शंकरदास छे" “समरा अने सारंग बन्ने भाईओ हता, मोटो संघ लइ संवत् १३७१मां सिद्धगिरि तथा गिरनारनी यात्रा करी हती. आ कवि देपाल सोलमा सैकानी शरुआतमां थएल छे." मई २०१३ - "समरा सारंग देसलहरा हता अने तेमना वंशजो देसलहरा कहेवाता हता. ते वंशजोनो आश्रित ते हतो, नहीं के समरा सारंगनो. कारण के समरा सारंग सं. १३७१मां थया ज्यारे देपाल सं. १५०१ थी १५३४ सुधीमां हयात हतो, बन्ने वच्चे लगभग सो ऊपर वर्षोनुं अंतर छे" For Private and Personal Use Only इससे उपर्युक्त आपत्ति का सर्वथा निरसन हो जाता है। ४. अब एक चौथा प्रश्न और भी विचारणीय रह जाता है वह यह है कि रासकार ने कोचरसाह जब व्यापारार्थ खंभात आया तब वहाँ तपगच्छनायक से व्याख्यान श्रवण करने का लिखा है । सुमतिसाधुसूरि का इसी ऐतिहासिक राससंग्रह भाग-१, पृ-२९ (राससार) में जन्म १४९४ दीक्षा १५११, गच्छनायकपद १५१८ और स्वर्ग सं. १५५१ लिखा है । अतः सुमतिसाधुसूरि के समय में यदि कोचरसाह हुए हों जैसा कि रासकार ने बतलाया है तो उनका समय भी सं. १५१८ से १५५१ होना चाहिए परन्तु आगे बताए हुए प्राचीन विश्वसनीय प्रमाणों के सामने रासकार की यह बात स्खलनायुक्त ज्ञात होती है। कोचरसाह और साजणसी के समय खंभात का अधिपति कौन था ? कोचरसाह को १२ गाँव का अधिकारी किसने बनाया? इसके विषय में रासकार एवं पट्टावलीकार दोनों ने ही कोई नाम-निर्देश नहीं किया। अत एव उस सम्बन्ध में ऊहापोह करने का यहाँ अवकाश नहीं है । ५. खरतरगच्छ की पट्टावली से कोचरसाह के समय का ही प्रकाश नहीं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ श्रुतसागर - २८ पडता परन्तु साथ-साथ उसके सलखणपुर आदि १२ गाँवों में अमारि उद्घोषण कराने की घटना भी विशेष परिपुष्ट होती है। कोचरसाह को रासकार ने प्राग्वाट ज्ञातीय लिखा है।* प्रमाणाभाव से यह नहीं कह सकते कि यह कहाँ तक ठीक है फिर भी रासकार ने उसे तपागच्छीय श्रावक लिखा है यह अवश्य विचारणीय है। खरतरगच्छ की पट्टावली से कोचरसाह के खरतरगच्छाचार्यों के प्रति बहुमानभक्ति, स्पष्ट ज्ञात होती है। तभी तो सलखणपुर में श्री जिनोदयसूरिजी के पधारने पर कोचरसाह ने समारोह पूर्वक प्रवेशोत्सव कराया था। उस समय की परिस्थिति देखते अपने अपने गच्छ का राग उस समय भी विशेष रूप से ही ज्ञात होता है। (जैन सत्यप्रकाश में से साभार) "कोचर व्यवहारीना पुत्र कीकन अने तेमना परिवारे भरावेल शंखलपुरमां बिराजमान सिंधुक पार्श्वनाथ भगवाननो आ लेख छे. आ लेखमां कोचरव्यवहारीने प्राग्वाटज्ञातीय जणाव्या छे, आ लेख सामग्री पू. आ. भ. श्री सोमचंद्रसूरीश्वरजी म.सा.ना संग्रहमांथी मळी छे. शंखलपुर बिराजमान सिंधुक पार्श्वनाथ भगवाननो लेख संवत् १७७३ वर्षे चैत्र सुदि १५ दिने प्राग्वाटज्ञातिप्रदीपकस्य साह वदा पुत्रस्य प्रतिष्ठा-तीर्थयात्रा प्रमुखपुण्यकार्यकारकस्य सलक्षणपुरत्रवर्तितामारिघोषकस्य सं. कोचरस्य तनयेन सा. कीकनसहितेन सा. नागसिंह सुश्रावकेन श्रीसिंधुकपार्श्वनाथ-बिंब कारितं प्रतिष्ठितं खरतरगच्छनायकः श्रीजिनराजसूरिपट्टनायकः श्रीजिनवर्धनसूरिभिः (४ नं. २१ नुं अनुसंधान) સંદર્ભસૂચિ ૧. જૈન તીર્થોનો ઇતિહાસ : મુનિરાજશ્રી ન્યાયવિજયજી (ત્રિપુટી) શ્રી ચારિત્ર સ્મારક ગ્રંથમાળા, અમદાવાદ, ઈ. સ. ૧૯૪૯ ૨. રાજસ્થાનના જૈન તીર્થો : વિમલકુમાર મોહનલાલ ધામી, નવયુગ પુસ્તક मंडा२, २०४ोट, 8.स. २००८ ३. प्राचीन तीर्थ श्री कापरडाजी का सचित्र इतिहास : मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज, वि. सं. १९८८ ४. श्री कापरडाजी तीर्थ : पंन्यास श्रीललितविजयजी, वि. सं. १९७७ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આચાર્યશ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર, કોબા સંક્ષિપ્ત કાર્ય અહેવાલ એપ્રિલ-૧૩ જ્ઞાનમંદિરના વિવિધ વિભાગોના કાર્યોમાંથી એપ્રિલમાં થયેલાં મુખ્ય મુખ્ય કાર્યોની ઝલક નીચે પ્રમાણે છે. ૧. મુંબઈ લોઢાધામ ખાતે પ. પૂ. રાષ્ટ્રસંત આચાર્ય ભગવંત શ્રી પાસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા. ની પાવનકારી નિશ્રામાં શ્રી સીમંધરસ્વામી ભગવાનના મહા-મગંલકારી પ્રતિષ્ઠા મહોત્સવ દરમ્યાન કલાસ શ્રુતસાગર ગ્રંથસૂચી ભાગ ૧૪ તથા ૧૫, શાંતસુધારસ ગુજરાતી ભાગ ૧ થી ૩ અને રાસ પદ્માકર ગ્રંથ - રનો વિમોચન કાર્યક્રમ યોજાયો. ૨. હસ્તપ્રત કેટલોગ પ્રકાશન કાર્ય અંતર્ગત કેટલોગ નં. ૧૬ માટે કુલ ૧૯૩ પ્રતો સાથે કુલ પપ કૃતિલિંક થઇ અને આ માસાંત સુધીમાં કેટલોગ નં. ૧૬ માટે ૨૨૧૦ લિંકનું કાર્ય પૂર્ણ થયું. ૩. હસ્તપ્રત સ્કેનીંગ પ્રોજેક્ટ હેઠળ હસ્તપ્રતોના કુલ ૫૮૫૮ પૃષ્ઠો સ્કેન કરવામાં આવ્યા. ૪. સાગરસમુદાય ગ્રંથ તથા વિશ્વ કલ્યાણ ગ્રંથ પુનઃ પ્રકાશન પ્રોજેક્ટ હેઠળ કુલ પ૭૭ પાનાઓની ડબલ એન્ટ્રી કરવામાં આવી. ૫. લાયબ્રેરી વિભાગમાં પ્રકાશન એન્ટ્રી અંતર્ગત કુલ ૪૮ પ્રકાશનો, ૧૮૭ પુસ્તકો, ૪૩૭ નવી કૃતિઓ તથા પ્રકાશનો સાથે ૩૬૩ કૃતિ લિંક કરવામાં આવી. આ સિવાય ડેટા શુદ્ધિકરણ કાર્ય હેઠળ જુદી-જુદી માહિતીઓના ૨કાંડૂર્સની માહિતીઓ સુધારવામાં આવી. ૬. મેગેઝીન વિભાગમાં ૧૦૫ મેગેઝિન અંકોના ૨૨૨ પેટાંકની સંપૂર્ણ માહિતી ભરવામાં આવી તથા તેની સાથે યોગ્ય કૃતિ લિંક કરવામાં આવી. ૭. ૧૨ વાચકોને હસ્તપ્રતના ૧૩૭ ગ્રંથોના ૯૯૧ પૃષ્ઠોની ઝેરોક્ષ નકલ ઉપલબ્ધ કરાવવામાં આવી. આ સિવાય વાચકોને કુલ ૩૮૩ પુસ્તકો ઇશ્ય થયાં તથા ૩૪૮ પુસ્તકો જમા લેવામાં આવ્યાં. વાચક સેવા અંતર્ગત પ. પૂ. સાધુસાધ્વીજી ભગવંતો, સ્કૉલરો, સંસ્થાઓ વિગેરેને ઉપલબ્ધ માહિતીના આધારે જુદી-જુદી ક્વેરીઓ તૈયાર કરી આપવામાં આવી, જેમાંથી તેઓ દ્વારા જરૂરી પુસ્તકો તથા હસ્તપ્રતોના ડેટાનો તેઓના કાર્યમાં ઉપયોગ કરવામાં આવ્યો. ૮. સમ્રાટ સંપ્રતિ સંગ્રહાલયની મુલાકાતે ૬૭૨ યાત્રાળુઓ પધાર્યા. ૯. આ સમયગાળામાં મદ્રાસ યુનિવર્સીટીની સ્કોલર શ્રીમતિ એ. શર્મીલા સોલંકી દ્વારા જ્ઞાનમંદિરની મુલાકાત લેવામાં આવી. તેઓ દ્વારા જૈન જીવન તથા આહારચર્યા અને દર્શન ઉપર શોધ કાર્યમાં તેઓએ જ્ઞાનમંદિરનો સહયોગ પ્રાપ્ત કર્યો. For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचार सार परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में लोढाधाम प्रतिष्ठा महोत्सव एवं ग्रन्थ षष्ट विमोचन समारोह हर्षोल्लास पूर्वक सम्पन्न परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की निश्रा में आयोजित महाविदेह के महाप्रभु श्री सीमंधरस्वामी की प्रतिमा का अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा महा-महोत्सव दिनांक २२ अप्रैल, २०१३ से २७ अप्रैल, २०१३ तक अनेक धार्मिक विधि-विधानों के साथ प्राचीन धार्मिक परम्परा के अनुरूप मनाया गया। मुंबई-अहमदाबाद हाइवे पर मुंबई के पास नवनिर्मित लोढाधाम में दिनांक २६ अप्रैल, २०१३ को चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में शुभलग्न-शुभमुहूर्त में प्रतिष्ठा विधि पूज्य आचार्य भगवन्त ने सम्पन्न की। उस समय भारत भर के विभिन्न भागों से पधारे हजारों श्रद्धालुओं ने जिनशासन एवं श्री सीमंधरस्वामी की जय-जयकार से संपूर्ण वातावरण को गुंजायमान कर दिया। जैसे ही जिनालय पर ध्वजा लहराई, लोगों ने तालियाँ बजाकर महाविदेह के महाप्रभु श्री सीमंधरस्वामी की जय-जयकार करते हुए नाचने-गाने लगे। अतीव आल्हादक दृश्य उपस्थित हो रहा था, चारों ओर मंगलगीत व नगारों की आवाज सुनाई दे रही थी। स्त्रीपुरुष, आबाल-वृद्ध सभी अपने आपको धन्य मान रहे थे, जिन्होंने इस मंगलकारी दृश्य का दर्शन किया वे अपने आपमें धन्य-धन्य हो रहे थे। परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब तथा राजस्थान दीपक परम पूज्य आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब आदि अनेक साधु-साध्वीजी भगवन्त अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ इस मंगलमयी अवसर पर लोढ़ाधाम में बिराजमान थे। प्रतिष्ठा विधि के पश्चात् धर्मसभा का आयोजन किया गया जिसमें परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्य परम पूज्य पंन्यास श्री अजयसागरजी महाराज साहब ने अपने मंगलप्रवचन में श्रुत की महिमा को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया। परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने अपने मंगल आशीर्वचन में जैनधर्म की महिमा को उजागर करते हुए इसे विश्वधर्म बताया। श्री संवेगभाई लालभाई. प्रमुख श्री आनन्दजी कल्याणजी ट्रस्ट ने भी धर्मसभा को सम्बोधित किया। श्रीमती मंजु देवी लोढ़ा ने अपने सुमधुर कण्ठ से लालित्यपूर्ण कविता के द्वारा उपस्थित चतुर्विध श्रीसंघ के प्रति आभार प्रकट किया। इस मंगलमय अवसर पर For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ मई - २०१३ श्री मंगलप्रभातजी लोढा ने महाराष्ट्र में सूखाग्रस्त क्षेत्र के सहायतार्थ मुख्यमंत्री राहत कोश में ढाई करोड़ रुपये का दान किया। उपस्थित जन समुदाय ने श्री लोढ़ा परिवार के सत्कार्य की खूब-खूब अनुमोदना की। धर्मसभा में परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब की प्रेरणा से संस्थापित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर से प्रकाशित कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची खण्ड १४ व १५, शान्तसुधारस भाग १ से ३ एवं रास पद्माकर ग्रन्थ २ का श्री मंगलप्रभातजी लोढ़ा एवं श्री संवेगभाई लालभाई ने विमोचन किया। लोढ़ाधाम प्रतिष्ठा महामहोत्सव के शुभ अवसर पर नवनिर्मित जिनालय, आराधना भवन, ग्रन्थालय आदि को रंग-बिरंगे रौशनी से सजाया गया था। दीपों की जगमग करती प्राकृतिक रौशनी में स्नान करता श्वेत संगमरमर का विशाल जिनालय अद्भुत छटा बिखेर रहा था । यहाँ आने वाले अतिथियों का कुमकुम से तिलक कर स्वागत किया गया, प्राचीन परम्परानुसार सुमधुर भोजन कराया गया, शीतल जल एवं अन्य पेय पदार्थों की सुन्दर व्यवस्था की गई थी। जस्टिस श्री गुमानमलजी लोदा के सुपुत्र श्री मंगलप्रभातजी लोढा, विधायक (महाराष्ट्र विधानसभा) द्वारा मुंबई के पास भायंदर तथा नायगाँव के बीच अहमदाबाद नेशनल हाइवे पर नवनिर्मित लोढाधाम में भगवान सीमंधरस्वामी के श्वेत संगमरमर से निर्मित भव्य त्रिशिखरीय जिनालय के साथ साधु-साध्वीजी भगवन्तों के लिये विशाल आराधना भवन, पाँच लाख पुस्तकों की क्षमतायुक्त आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण विशाल धर्मग्रन्थागार, जैन सिद्धान्तों के अनुकूल भोजनशाला, विशाल सभाकक्ष आदि का निर्माण कराया गया है। श्री मंगलप्रभातजी लोढा संस्कार सम्पन्न एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी हैं। समाजसेवा एवं जरुरतमंदों की सेवा तो जैसे उन्हें अपने पिता से विरासत में ही मिली है। इनकी धर्मपत्नी सुश्राविका मंजुदेवी लोढ़ा साहित्यरसिक, भावनाशील एवं उदारहृदया सन्नारी हैं। इनको धर्म, समाज, शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृति का संगम कहा जा सकता है। कुशल गृहिणी के साथ संवेदनशील कवियत्री भी हैं। भव्य जिनालय प्रतिष्ठा महामहोत्सव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि सभी कार्यक्रम सादगीपूर्ण थे.जो आने वाले अनेक वर्षों तक लोगों के मानस पटल पर अंकित रहेंगे। अन्य प्रतिष्ठा समारोहों में अनावश्यक प्रदर्शन पर होने वाले खर्च को रोक कर उस धन का गरीबों एवं जरुरतमंदों के बीच वितरित करने के लोदा परिवार के विचार को उपस्थित सभी लोगों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रतिष्ठा महोत्सव में उपस्थित धर्मप्रेमियों ने इस आयोजन को एक अलग, अनोखा एवं अद्भुत महोत्सव बताया। For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ৩०० अत्याधिक प्राचीन ताडपत्र आगम ग्रंथो पूज्य गुरुदेवने समर्पित करता लोढा परिवारना श्री मंगलप्रभावजी लोटा एवं श्रीमती मंजु लोढा तेमज ज्ञानमंदिर तरफथी प्रकाशित प्रकाशनोनुं विमोचन करता आणंदजी कल्याणजी ट्रस्टना प्रमुख शेठ श्री संवेगभाई For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir To वान -12 दक्षिण म लोक aar ददि तिर्यव LEE ऊ no वसनाडिबादिरिएकजियजीवबईतेद जिन तानिश्रीरखरतरगोश्रीजिनमाणिकारिविजयर धवलचंडमादायाधाव्यमिशियाननिष्पकरलि BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स : (079) 23276249 E-mail: gyanmandir@kobatirth.org website : www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only