________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर - २८
२३ को स्वतन्त्रता भी मिली हुई है और उसका उत्तरदायित्व भी उसे ही निभाना है। व्यक्ति कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है किन्तु फल भोगने का उत्तरदायित्व भी उसीका है। इसमें किसी अन्य व्यक्ति/देवता/ईश्वर आदि का हस्तक्षेप नहीं है। मनुष्य चाहे तो ईश्वर की कोटि भले प्राप्त कर सकता है, यह उसकी क्षमता के बाहर की वस्तु नहीं है। लेकिन ईश्वर से तात्पर्य यहाँ व्यक्ति का स्वयं अपना ही निजरूप है। जो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है। इस निजरूप को प्राप्त करना ही मनुष्य का प्रयोजन/आदर्श है।
इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जैनदर्शन के अनुसार धीर पुरुष को क्षणभर का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए- 'धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए' कुशल व्यक्ति वही है जो बिना प्रमाद के पुरुषार्थ में विश्वास करता है
इस प्रकार जैन साहित्य में हमें स्थान-स्थान पर प्रमाद की निन्दा और पुरुषार्थ की प्रशंसा मिलती है।
ज्ञानार्णव में मोक्ष-चर्चा के चलते पुरुषार्थ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि प्राचीनकाल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं
धर्मश्चार्थश्चकामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः । पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः।।
किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद अर्थ एवं काम पुरूषार्थ सहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं। अतः ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिये ही प्रयत्न करने को कहा गया है, जो संयमपूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। समणसुत्तं में भी कहा गया है- 'असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।' अथवा असंयमानिवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम् ।
परमात्मप्रकाश में भी उपरोक्त चारों पुरुषार्थों में से मोक्ष को ही उत्तम पुरुषार्थ माना गया है। क्योंकि अन्य किसी में ‘परम सुख नहीं है। वस्तुतः जैनदर्शन इस प्रकार केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ स्वीकार करता हुआ प्रतीत होता है। धर्म पुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में है तथा अर्थ और काम का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि 'भारतीय चिन्तन में जहाँ पुरुषार्थ-चतुष्टय प्रतिबिम्बित होता है, वहाँ जैनदर्शन-दर्पण में पुरुषार्थ-द्वय (धर्म और मोक्ष) अवलोकित होता है । यहाँ बाकी के दो पुरुषार्थों को धर्म के साथ
For Private and Personal Use Only