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श्रुतसागर - २८
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अध्ययन किया। अपूर्व लगन एवं तन्मयता के कारण कुछ ही वर्षों में मुनिश्री की गणना जैन समाज के विद्वान साधुओं में होने लगी। तलस्पर्शी अध्ययन के साथसाथ मुनिश्री की गुरु सेवा भी अपूर्व थी। गुरु के प्रति समर्पण भाव के कारण गुरुदेव की असीम कृपा हर समय उनके साथ थी । मुनिश्री की योग्यता को देखते हुए विक्रम संवत् २००४ में गणिपद, २००५ में पंन्यासपद, २०११ में उपाध्यायपद तथा संवत् २०२२ में साणंद में आचार्यपद से विभूषित किया गया।
ज्योतिषी की भविष्यवाणी दिन - दिन फलिभूत होती जा रही थी और आचार्यश्री की उन्नति भी निरन्तर गतिशील थी। विक्रम संवत् २०२६ में समुदाय का समग्र भार आचार्यश्री पर आया और वे गच्छनायक बने । वि. सं. २०३९ ज्येष्ठ शुक्लपक्ष ११ के शुभदिन महुड़ी तीर्थ की पावन भूमि पर विशाल जनसमूह की उपस्थिति में विधिवत सागर समुदाय के गच्छाधिपति पद से विभूषित किया गया।
आप शिल्पशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, जिसके कारण जिनबिम्ब एवं जिनालय निर्माण के सम्बन्ध में श्रमण एवं श्रावकवर्ग सदैव उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते रहते थे। उच्च कोटि के विद्वान और ऊँचे पद पर आसीन होते हुए भी आपमें कभी भी अभिमान की सामान्य झलक देखने को नहीं मिली। इसी निःस्पृहता एवं निरभिमानता के गुणों के कारण आप लोकप्रिय थे। महेसाणा की पावन भूमि पर महाविदेह के महाप्रभु श्री सीमन्धरस्वामी भगवान का विशाल जिनालय एवं विराट प्रतिमा की स्थापना भी पूज्य गच्छाधिपति की प्रेरणा से ही हुई थी। श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा के निर्माण में भी पूज्यश्री की प्रेरणा रही है ।
जिनशासन की अपूर्व लोकप्रियता और ऊँची प्रतिष्ठा पाने पर भी आपने कभी अपने स्वार्थ के लिये उसका उपयोग नहीं किया। आपका जीवन अत्यन्त सादगीपूर्ण था। संयमजीवन ग्रहण करने के पश्चात् से ही आपने एकासणा तप का पालन प्रारम्भ कर दिया था जिसका लगभग चार दशक तक पालन किया । आप हमेशा मात्र दो द्रव्यों से ही आहार कर शरीर का निर्वहण करते थे। दीक्षा के थोड़े समय बाद ही आपने मिठाई का भी त्याग कर दिया था जिसका जीवन पर्यन्त निर्वाह किया । उग्रविहार और शासन की अनेक प्रवृत्तियों में व्यस्त रहते हुए भी आप अपने आत्मचिंतन, स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिये समय निकाल लेते थे। आप आत्महित के लिये सदा जाग्रत रहते थे। आप सभी को आत्मश्रेय के लिये सदैव जाग्रत रहने का महामंत्र देते थे । आपमें परमात्मा के प्रति अपार श्रद्धा थी। आपके रोम-रोम में प्राणी मात्र के प्रति मैत्री की भावना भरी हुई थी। आप अपने समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करते थे। कभी भी आपको व्यर्थ में समय
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