Book Title: Shrutgyan Amidhara
Author(s): Kshamabhadrasuri
Publisher: Shrutgyan Amidhara Gyanmandiram
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१६७
पुवि मइसंकलियं, भांति जं धम्मसंजुत्तं ॥ ८० ॥ सट्ठि वाससहस्सा, तिसत्तखुत्तोदयेण धोरण | अणुचिण्णं तामलिणा, अन्नातत्ति अप्पफलो ॥ ८१ ॥ छज्जीवकायवहगा, हिंसकसत्थाइँ उवइति पुणो । सुबहुपि तवकिलेसो, बालतवस्सीण अप्पफलो ॥ ८२ ॥ परियच्छंति अ सव्वं, जहट्ठियं भवितं असंदिद्धं । तो जिणत्रयणविहिन्नू सहति बहुअस्स बहुआई ॥ ८३ ॥ जो जस्स वट्टइ हियए सो तं ठावेइ सुंदरसहावं । वग्धी छावं जणणी, भद्द सोमं च मन्नेइ ॥ ८४ ॥ मणिकणगरयणधणपूरियम्मि भवणश्मि सालिभद्दोऽवि । अन्नो किर मज्झवि सामिभत्ति जाओ विगयकामो ॥ ८५ ॥ न करंति जे तवसंजमं च तुल्लपाणिपायाणं । पुरिसा समपुरिसाणं, अवस्स पेसत्तणमुर्विति ॥ ८६ ॥ सुंदर सुकुमाल होइएण विविहेहिं तव विसेसेहिं । तह सोसविभो अप्पा जह नवि नाओ सभवणेऽवि ॥ ८७ ॥ दुरमुद्धोसकरं, अवंतिसुकुमालमह रिसीचरियं । अप्पावि नाम तह तज्जइत्ति अच्छेरयं एभं ॥ ८८ ॥ उच्छूढसरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नंति । धम्मस्स कारणे सुविहिया सरीरंपि छति ॥ ८९ ॥ दिवसंपि जीवो, पव्वज्जमुवागओ अनन्नमणो । जइवि न पावइ मुक्खं, rate dमाणिओ होइ ॥ १० ॥ सीसावेढेण सिरम्मि वेढिए निग्गयाणि अच्छीणि । मेयज्जस्स भगवओ, न य सो मणसावि परिकुवि ॥ ९१ ॥ जो चंदणेण बाहुं, आलिंपइ वासिणा व तच्छेइ । संथुणइ जो अ निंदइ, महरिसिणो तत्थ समभावा ॥ ९२ ॥ सिंहगिरिसीसाणं, भद्दं गुरुवयणसद्दहंताणं । वयरो किर दाही वायणत्ति न विकोविअं वयणं ।। ९३ ॥ मिण गोणसंगुलीहिं, गणेहि वा दंतचक्कलाई से । इच्छंति भाणिऊणं, (भाणियव्वं ) कज्जं तु ते एव जाणंति ||१४|| कारणविऊ कयाई, सेयं कायं वयंति आयरिया । तं तह सहहिअव्वं भविभव्वं
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