Book Title: Shrutgyan Amidhara
Author(s): Kshamabhadrasuri
Publisher: Shrutgyan Amidhara Gyanmandiram
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त्थोऽवि । जं दोऽवि अणिग्गहिया, करंति रागो अ दोसो अ ॥१२६॥ इहलोए आयासं अजसं च करंति गुणविणासं च । पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे ॥ १२७ ।। धिद्धी अहो अकजं, जं जाणंतोऽवि रागदोसेहि । फलमउलं कडुअरसं, तं चेव निसेवए जीवो ॥ १२८ ॥ को दुक्खं पाविज्जा ! कस्स व सुक्खेहि विम्हओ हुज्जा ? । को व न लभिज मुक्खं ? रागहोसा जइ न हुज्जा ॥ १२९ ॥ माणी गुरुपडिणीओ, अणत्थभरिओ अमग्गचारी य । मोहं किलेसजालं, सो खाइ जहेव गोसालो ॥ १३० ॥ कलहणकोहणसीलो, भंडणसीलो विवायसीलो य । जीवो निच्चुज्जलिओ, निरत्थयं संयमं चरइ ॥ १३१ ॥ जह वणदवो वणं दवदवस्स जलिओ खणेण निदहइ । एवं कसायपरिणओ, जीवो तवसंजमं दहई ॥ १३२ ॥ परिणामवसेण पुणो, महिओ ऊणयरओ व हुज्ज खओ। तहवि ववहारमित्तेण, भण्णइ इमं जहा थूलं ॥ १३३ ॥ फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो अहणइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो असामपणं ॥ १३४ ॥ अह जीविषं निकिंतइ, तूण य संजमं मलं चिणइ । जीवो पमायबहुलो, परिभमइ अ जेण संसारे ॥ १३५॥ अकोसणतजणताडणा य अवमाणहीलणाओ म । मुणिणो मुणियपरभवा दढप्पहारिव्व विसहति ॥ १३६ ॥ अहमाहओत्ति न य पडिहणंति सत्ताऽवि न य पडिसवंति । मारिज्जंताऽवि जई; सहंति साहस्समल्लुव्व ॥ १३७ ॥ दुजणमुहकोदंडा, वयणसरा पुव्वकम्मनिम्माया । साहूण ते न लग्गा, खंतीफलयं वहताणं ॥ १३८ ॥ पत्थरेणाहओ कीवो, पत्थरं डक्कुमिच्छइ । मिगारिओ सरं पप्प, सरुप्पत्तिं विमग्गइ ।। १३९ ॥ तह पुटिव किं न कयं, न बाहए जेण मे समत्थोऽवि ? । इण्हि किं कस्स व कुप्पिमुत्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥ १४० ॥ अणुराएण जइस्सऽवि, सियायपत्तं
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