Book Title: Shraman Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 242
________________ प्रवृत्ति बाहर में : मानदण्ड भीतर में / २२७ महा दोषी ठहराते हो - कायकर्म को, वचनकर्म को, या मनकर्म को ?' 'तपस्वी ! इन तीनों कर्मों में मैं मनकर्म को महादोषी बतलाता हूं।' दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ आसन से उठ जहां निग्गंथ नातपुत्त थे, वहां चला गया । उस समय निग्गंथ नातपुत्त बालक (लोणकार) निवासी उपाली आदि की बड़ी गृहस्थ-परिषद् के साथ बैठे थे। तब निग्गंथ नातपुत्त ने दूर से ही दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ को आते देख पूछा 'तपस्वी ? मध्याह्न में तू कहां से आ रहा है?" 'भंते! श्रमण गौतम के पास से आ रहा हूं।' 'तपस्वी! क्या तेरा श्रमण गौतम के साथ कथा - संलाप हुआ ?' 'भंते! हां, श्रमण गौतम के साथ मेरा कथा - संलाप हुआ ?' 'तपस्वी! श्रमण गौतम के साथ तेरा क्या कथा - संलाप हुआ ?' 'तब दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने भगवान् के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, वह सब निग्गंथ नातपुत्त को कह दिया ।' 'साधु! साधु! तपस्वी ! जैसा कि शास्ता के शासन को जानने वाले बहुश्रुत श्रावक दीर्घ तपस्वी निग्रन्थ ने श्रमण गौतम को बतलाया । यह मृत मनदंड इस महान् कायदंड के सामने क्या शोभता है ? पाप कर्म की प्रवृत्ति के लिए कायदंड ही महादोषी है; वचनदंड और मनदण्ड वैसे नहीं । भगवान् महावीर अनेकान्तदृष्टि के प्रवक्ता थे । वे किसी तथ्य को एकांगी दृष्टि से नहीं देखते थे । प्रवृत्ति का मूल स्रोत काय है। इसलिए कायदण्ड महादोषी हो सकता है। प्रवृत्ति का प्रेरणा-स्रोत मन है, इसलिए वह भी महादोषी हो सकता है। प्रवृत्ति के सत् और असत् होने का मानदंड मन ही है। भगवान् महावीर राजगृह में विहार कर रहे थे। सम्राट् श्रेणिक भगवान् को वंदना करने गया । उसने राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को देखा। राजर्षि की ध्यान-मुद्रा को नमस्कार किया और मन ही मन उसके ध्यान की प्रशंसा करता हुआ आगे बढ़ गया। वह भगवान् के पास जाकर बोला 'भंते! मैंने आते समय राजर्षि प्रसन्नचन्द्र को देखा है । उनकी ध्यान - मुद्रा को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया । लग रहा था कि अभी वे बहुत तन्मय हैं। इस समाधि-अवस्था में उनका शरीर छूट जाए तो वे निश्चित ही निर्वाण को प्राप्त होंगे। क्यों भंते! मैं ठीक कह रहा हूं न ?' 'नहीं ।' 'यह कैसे, भंते ?" 'तुम शरीर को देख रहे हो । समाधि का मानदण्ड कुछ दूसरा है।' 1 १. मज्झिमनिकाय, उपालिसुत्त ६ । १ से २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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