Book Title: Shraman Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 255
________________ २४० / श्रमण महावीर 'क्या व्यापार करता है?' 'जवाहरात का।' 'रात को कहां जा रहा था?' 'गांव से चलकर यहां आ रहा था। कुछ विलम्ब हो गया। इसलिए रात पड़ गई। प्रहरियों ने बंदी बना लिया।' 'क्या तू सच कह रहा है?' 'आप जांच करा लें।' 'सम्राट् ने अभयकुमार की ओर देखा। उसने सम्राट् की भावना का समर्थन किया और गुप्तचर को उसी जांच के लिए शालग्राम भेज दिया। सभा विसर्जित हो गई।' रोहिणेय ने शालग्राम की जनता पर जादू कर रखा था। वह उस ग्राम की आकांक्षा की पूर्ति करता था। ग्राम ने उसकी आकांक्षा की पूर्ति की। उसने जो परिचय दिया था, उसकी ग्रामीण जनता ने पुष्टि की। गुप्तचर ने प्राप्त जानकारी की सूचना सम्राट् को दे दी। सम्राट् ने रोहिणेय को मुक्त कर दिया। अभयकुमार ने उससे क्षमा-याचना की और मैत्री का प्रस्ताव किया। दोनों मित्र बन गए। अभयकुमार ने भोजन का अनुरोध किया। रोहिणेय ने यह स्वीकार कर लिया। शिक्षित कर्मचारियों ने उसके भोजन की व्यवस्था की। वह भोजन करते-करते मूर्च्छित हो गया। कर्मकरों ने उसे उठाकर एक भव्य प्रासाद में सुला दिया। कुछ घंटों बाद मादक द्रव्यों का नशा उतरा । वह अंगड़ाई लेकर उठा। उसने आंखें खोली वह स्वप्न-लोक में उतर आया। मीठी-मीठी परिमल से उसका मन प्रफुल्लित हो गया। कुछ अप्सराएं आईं और प्रणाम की मुद्रा में बोली - 'यह स्वर्ग है। यह स्वर्गीय वैभव। आप यहां जन्में हैं। हम जानना चाहती हैं कि आपने पिछले जन्म में क्या कर्म किए? क्या चोरी की? डाका डाला? मनुष्यों को सताया? उन्हें मारा-पीटा? या और कुछ किया? ऐसे कार्य करने वाले ही स्वर्ग में जन्म लेते हैं।' रोहिणेय अवाक् रह गया। वह कुछ समझ नहीं सका। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। अप्सराओं की ओर देखा। उसे महावीर की वाणी याद आ गई। 'इनके नेत्र अनिमिष नहीं है। इनके पैर धरती को छू रहे हैं। ये मानवीय युवतियां हैं, अप्सराएं नहीं है। यह अभयकुमार की कूटनीति का चक्र है। वह स्थिति को ताड़ गया। उसने कहा'मैं दुर्गचण्ड हूं। अभी जीवित हूं, मनुष्य-लोक में ही हूं। आप मेरी आंखों पर पर्दा डालने का यत्न न करें।' गुप्तचर ने अभयकुमार को सारी घटना की सूचना दी। उसने असफलता का अनुभव किया और रोहिणेय को ससम्मान शालग्राम गांव की ओर भेज दिया। रोहिणेय का हृदय-परिवर्तन हो गया। उसने सोचा - महावीर की एक वाणी ने मुझे उबार लिया। मेरे पिता ने उनके पास जाने और उनकी वाणी सुनने से मुझे रोककर अच्छा काम नहीं किया। अब मैं उनके पास जाऊं और उनकी वाणी सुनूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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