Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Sanmarg Prakashak

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Page 10
________________ दीक्षा युगप्रवर्तक श्रीजी के श्रीचरणों में ससम्मान श्रद्धांजलि न्यायांभोनिधि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराजा के स्वर्गवास के वर्ष में जन्मे, पादरा माता समरथ व पिता छोटालाल रायचंद के इकलौते सुपुत्ररत्न त्रिभुवनकुमार ने दीक्षा की सार्वत्रिक विपरीत अवस्थाओं के बादलों को स्वपुरुषार्थ से बिखेरकर भरूच के पास गंधारतीर्थ में पू. मु. श्री मंगलविजयजी महाराजा के करकमलों से रजोहरण प्राप्त कर पू. मु. श्री प्रेमविजयजी महाराज (बाद में सूरीश्वरजी) के प्रथम पट्टशिष्य के रूप में पू. मु. श्री रामविजयजी महाराज का नाम धारण किया। उस समय दीक्षितों व दीक्षार्थियों को दीक्षा का आदान-प्रदान करने के 'लिए जिस तरह से संघर्ष करना पड़ता था, उस परिस्थिति में पूर्वपश्चिम जैसा प्रचंड बदलाव लाने का दृढ़ संकल्प करके उनके मूल कारण खोजकर उसे जड़ मूल से उखाड़ फेंकने का उन्होंने भीष्म पुरुषार्थ शुरू किया था। સ્થાન તાજ તારામાં 100 tears RN.LE-2000, W12 छीक्षाशताछी: 8/A इस पुरुषार्थ की नींव की शिला 'प्रवचनधारा' बनी। अनंत तीर्थंकरों को हृदय में बसाकर, जिनाज्ञा - गुर्वाज्ञा को भाल प्रदेश में स्थापित कर, करकमल में आगमादि धर्मशास्त्र धारण कर, चरणद्वय में चंचला लक्ष्मी को रखकर, जिह्वा के अग्रभाव में शारदा को संस्थापित कर इन महापुरुष ने दीक्षाविरोध के खिलाफ भीषण जेहाद छेड़ी थी। अनेक बाल, युवा, प्रौढ और वृद्धों को दीक्षा प्रदान की। एक साथ परिवार दीक्षित होने लगे। हीराबाजार के व्यापारी, मिलमालिक, डॉक्टर, इंजीनियर व चार्टर्ड एकाउन्टेंट भी उनकी वैराग्य वाणी से प्रभावित होकर वीरशासन के भिक्षुक बन गए। इस कार्यकाल के दौरान इन श्रीमद् को कई उतार-चढ़ाव, अपमानों, तिरस्कारों, काच की वृष्टि, कंटकों के रास्ते, काले झंडे, स्थान व गांव में प्रवेश न मिले, ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पैंतीस से अधिक बार तो सिविल व क्रिमिनल गुनाहों में आरोपी बनाकर जैन वेषधारियों ने ही अदालत दिखाई। मां समरथ के जाए, रतनबा द्वारा पोषित, सूरिदान की आंखों के तारे और समकालीन सर्व वरिष्ठ गुरुवर्यों के हृदयहार के रूप में स्थान प्राप्त करने वाले पूज्यश्री ने जिनाज्ञा व सत्यवादिता के जोर पर इन सभी आक्रमणों पर विजय प्राप्त की थी । पू. मु. श्री रामविजयजी महारांजा से पू. आ. श्री विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा के रूप में विख्यात हुए श्रीमद् व्याख्यानवाचस्पति, परमशासनप्रभावक, महाराष्ट्रादिदेशोद्धारक, दीक्षायुगप्रवर्तक, जैनशासनसिरताज, तपागच्छाधिराज जैसे १०८ से अधिक सार्थक खिताब पाकर जैनशासन को आराधना, प्रभावना और सुरक्षा के त्रिवेणी संगम से परिस्नात कराते रहे। कट्टर से कट्टर विरोधी वर्ग को भी वात्सल्य से देखते और अपने प्रति गंभीर अपराध करनेवाले को भी झट से क्षमा दान करनेवाले श्रीमद् ने अपने ७७-७८ वर्ष के सुदीर्घ संयमपर्याय में मुख्य रूप से दीक्षाधर्म की सर्वांगीण सुरक्षा संवर्धना की, उनके बीज ऐसे सुनक्षत्र में बोए कि उनके नाम से पुण्य संबंध रखनेवाले एक ही समुदाय में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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