Book Title: Shaddarshan Samucchaya Part 01 Author(s): Sanyamkirtivijay Publisher: Sanmarg Prakashak View full book textPage 8
________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, प्रकाशकीय प्रकाशकीय I सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये दो पहियों के उपर जैन शासन का मुक्तिरथ अविरत मोक्षनगर की ओर अस्खलित प्रयाण करता हैं । चारित्र की शुद्धि, वृद्धि का अनन्य कारण ज्ञान ही है । संसार में जैसे किसी भी क्रिया करने से पहले उसका ज्ञान अनिवार्य माना जाता हैं, वैसे मुक्ति मार्गरूप धर्म में भी प्रत्येक क्रिया ज्ञान का साहचर्य चाहती हैं । ७ साधु जीवन मोक्षप्राप्ति का राजमार्ग हैं । श्रावक जीवन तो छोटी सी गली के समान ही हैं । साधु जीवन को अणिशुद्ध बिताकर उसका संपूर्ण आस्वाद महसूस करना हो तो ज्ञान के महासागर में डूबकी लगा देनी चाहिए । साधु जीवन में प्रत्येक दिन में पाँच प्रहर अर्थात् पन्द्रह घण्टे स्वाध्याय के लिए जो रखे गये हैं उसका यही कारण हैं । ज्ञानानंदी को न तो विषय परेशान करे, न उसको कषाय दर्द दे । ज्ञानमग्न के सुख का वर्णन संभव ही नहीं । " आनंद की गत आनंदघन जाने" । ज्ञान का आलंबन है शास्त्र । परमात्मा की वाणी शास्त्रों में लिखी गई हैं और उसके आधार पे ही शासन का संचालन होता हैं । समर्थ सूरिपुंगव शास्त्र रचना करते हैं, उसको लिखाने - प्रकाशित करवाने - प्रचारित करवाने का कार्य शासनभक्त सुश्रावकों का हैं । साधु-साध्वीजी भगवंत शास्त्र को जीवन में जीकर प्रचार करते हैं, तो श्रावकश्राविका शास्त्र को उपलब्ध कराकर उसका प्रचंडपुण्य प्राप्त करते हैं । इसलिए ही श्रावक के कर्तव्यो में एक " पुत्थय- लिहणं" पुस्तक लेखन बताया गया हैं । "सन्मार्ग प्रकाशन" भी ऐसे ही उत्तम उद्देश को मानती हुई जैन पुस्तक प्रकाशिका संस्था है । अचिन्त्य चिन्तामणि कल्प श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ परमात्मा की असीम कृपा से, वैसे ही जैन शासन शिरताज तपागच्छाधिराज पू.आ.श्री. विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की धर्मवाणी ग्रहण करके उनकी - श्रीमद् की निश्रा में ही इसकी संस्थापना हुई है, तो उनके - श्रीमद् के पट्टालंकार सर्वाधिक संख्यक श्रमण- श्रमणी संघनायक पू.आ.श्री. विजय महोदयसूरीश्वरजी महाराजा की अध्यात्म उष्मा पाकर, उसका सविशेष विकास हुआ हैं 1 Jain Education International वे श्रीमद् के लघुगुरुबंधु वर्धमान तपोनिधि पू. आ. श्री. विजय गुणयशसूरीश्वरजी महाराज के प्रभावक शिष्यरत्न अनेकानेक ग्रंथो के सफल सर्जक - संपादक पू. आ. श्री. विजय कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा का शास्त्रीय मार्गदर्शन अन्जान छोटे से मार्ग में अस्खलित प्रयाण करने के लिए मार्गदर्शक की तरह हमको प्रतिपल उपकारक बना रहा हैं । वे प्रत्येक पूज्यपुरुषो की कृपा के बल से ही हम प्राकृत संस्कृत ग्रंथ, अभ्यास ग्रंथ, प्रवचन For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 712