Book Title: Savay Pannatti Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ प्रधान सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १९८१ से) 'सावयपन्नत्ती' या 'श्रावकप्रज्ञप्ति' अपने नाम के अनुसार श्रावकाचार विषयक प्राचीन रचना है। यह प्राकत गाथाबद्ध है और उस पर संस्कृत टीका है। न तो मल ग्रन्थ में और न उसकी टीका में ग्रन्थकार का तथा टीकाकार का नाम दिया है। फिर भी कुछ उल्लेखों के आधार पर, जिनका निर्देश प्रस्तावना में किया गया है, श्रावकप्रज्ञप्ति को आचार्य उमास्वाति की कृति माना जाता है। यह उमास्वाति वही माने जाते हैं जिनकी कृति 'तत्त्वार्थसूत्र' पाठभेदों के साथ दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में वर्णित श्रावकाचार ही विस्तार से इस ग्रन्थ में वर्णित है फिर भी दोनों कृतियों का एककर्तृक होना सन्दिग्ध है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि श्रावकप्रज्ञप्ति का आधार तत्त्वार्थसूत्र का सातवाँ अध्याय होना चाहिए। सम्यग्दर्शन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा अन्त में समाधिमरण यह पूर्ण श्रावकाचार समस्त जैन-परम्परा को मान्य है। तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित न करके सातों का निर्देश व्रतरूप में किया है। किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के रूप में उनका कथन किया है। तथा प्रथम दिग्व्रत के पश्चात् भोगोपभोगपरिमाणव्रत का कथन गुणव्रतों में और देशव्रत का कथन भोगोपभोगपरिमाण व्रत के स्थान में न कर शिक्षाव्रतों में किया है। यह दोनों में अन्तर है। स्व. पं. सुखलाल जी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन के पाद-टिप्पण में लिखा है 'सामान्यतः भगवान् महावीर की समग्र परम्परा में अणुव्रतों की पाँच संख्या, उनके नाम तथा क्रम में कुछ भी अन्तर नहीं है। परन्तु उत्तरगुणरूप में माने हुए श्रावक के व्रतों के बारे में प्राचीन तथा नवीन अनेक परम्पराएँ हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसी दो परम्पराएँ देखी जाती हैं-पहली तत्त्वार्थसूत्र की और दूसरी जैनागमादि अन्य ग्रन्थों की। पहली में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत को न गिनाकर देशविरमणव्रत को गिनाया है। दूसरी में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत गिनाया है तथा देशविरमणव्रत सामायिक के बाद गिनाया है।' पण्डित जी के उक्त कथन के प्रकाश में यह स्पष्ट है कि श्रावकप्रज्ञप्ति की रचना श्वेताम्बर-मान्य आगमों के अनुसार की गयी है अतः उसके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रकार से भिन्न होना चाहिए। दोनों कृतियों में भाषाभेद तो है ही। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर-मान्य पाठ पर जो भाष्य है-जिसे सूत्रकारकृत माना जाता है उसके अन्त में कर्ता की विस्तृत प्रशस्ति पायी जाती है किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में कर्ता का नाम तक नहीं है। श्रावकप्रज्ञप्ति (गा. १०७) में स्थूल प्राणिवध के दो भेद किये हैं-संकल्प से और आरम्भ से। उनमें से प्रथम अणुव्रत का धारक श्रावक संकल्प से ही त्याग करता है, आरम्भ से नहीं। इस प्रकार का भेद तत्त्वार्थसत्र और उसकी टीकाओं में उपलब्ध नहीं होता। रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रथम अणुव्रती को संकल्पी हिंसा का त्यागी अवश्य कहा है। अमितगति ने अपने श्रावकाचार में हिंसा के दो भेद कियेPage Navigation
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