Book Title: Saral Manav Dharm Part 01
Author(s): Mahendra Sen
Publisher: Shakun Prakashan Delhi

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Page 28
________________ भामाशाह मेवाड़ के भाग्य विधाता । धन न होने से आप सेना नहीं इकट्ठी कर पा रहे हैं और इसी लिए आप को जन्मभूमि छोड़ कर जाना पड़ रहा है । क्या यह हमारे लिए कम शर्म की बात है ? महाराणा प्रताप-किन्तु भामाशाह इसमें आपका क्या दोष है ? यह सब भाग्य का ही तो खेल है । मुझे तो यह सन्तोष है कि मेरे प्रिय साथियों ने तन, मन और धन से जो भी सम्भव था मेरी सहायता की। भामाशाह--नहीं राजपूत शिरोमणि । मैं आप की कुछ भी सेवा नहीं कर सका । आप का ही नमक खा कर मेरा यह शरीर बना है और आप की ही कृपा से धन संचय करके मैं सेठ बना बैठा हूं। आज मेवाड़ का सूर्य दर-दर की ठोकरें खाए और मैं धनीमानी बना बैठा ऐश करूं धिक्कार है मेरे ऐसे जीवन पर। महाराणा प्रताप-ऐसा न कहो भामाशाह, तुमने भरसक देश की सेवा की है । परन्तु भाग्य में जो लिखा है उसे नहीं मिटाया जा सकता। भामाशाह-(दृढ़ स्वर में) मिटाया जा सकता है ।

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