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संक्षिप्त जैन इतिहास |
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जिनवाणीका उद्धार | वाणीके पुनरुद्धारका उद्योग हुआ था. वह विशेष उल्लेखनीय है. उनके शिलालेखमे (पक्ति १६ ) स्पष्ट उल्लेख है कि खारवेलके समयमे द्वादशाङ्गवाणी लुप्त हुई मानी जाती थी । सम्राट् खारवेलने उसका यथासाध्य उद्दार किया था । उन्होंने जैन ऋपियोंका एक संघ एकत्रित किया था और उसके द्वारा इस उद्धारका सद्प्रयास हुआ था । मि० जायसवालने लिखके इस अशका यह अर्थ प्रस्ट किया है कि " मौर्य राजा के समय जो ६४ विभागांका चतुर्याम अङ्ग सप्तिक लुप्त होगया था, उसका उद्धार खारवेलने किया ।" इसका भाव स्पष्ट नहीं है, किन्तु मि० जायसवाल इसका पुन अध्ययन करके खुलामा प्रकट करनेवाले है । कुछ भी हो. इस गिलालेखीय उल्लेख निग म्वर जैनोंकी मान्यताका समर्थन होता है । दिगम्बर जैनोका विश्वास है कि द्वादशाङ्गवाणीका विच्छेद श्रुतकेवली भद्रबाहुजीक साथ होगया था और उनके बाद विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय नाग, सिद्धार्थधृतिसेन, विजय बुद्धिल, गंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह आचार्य केवल दशपूर्वके धारी एकके बाद एक १८३ वर्षमे हुए थे । अतएव चन्द्रगुप्त मोर्य के समय नष्ट हुआ अगज्ञान १८३ वर्ष वाढ तक केवल दशपूर्वरूपमे किश्चित् शेप रहा था ।
इन दशपृर्वीर्थोके उपरान्त नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस नामक पाच आचार्य ग्यारह अगोके धारक २२० वर्षमे हुये थे । इन ग्यारह अगो अर्थात् अंगज्ञानके धारकोका अस्तित्व तब ही सभव है जब मौर्य्यराजासे १८३ वर्षके अन्तरालकालमे उनका पुनरुद्धार हुआ हो । सम्राट् खारवेलका उक्त कार्य इस अन्तराल