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७६] संक्षिप्त जन इतिहास । से प्रगट है कि भद्रबाहु स्वामीक समय गंब भट उपस्थित हुआ. तब भीण रुपमे प्राचीन निग्रंथ मघमे एक शाखा अलग होगई थी
और वह अपने मिद्धात ग्रन्थ आदि टीक करनेमें व्यग्र दी थी। वह 'अर्द्धफालक मंप्रदाय थी और इसके सायु खण्ड यत्र ग्रहण करने थे । श्वेताराका पूर्वज यह 'अर्द्धफालक' संप्रदाय था। कनिपय विद्वान् 'अर्द्धफालक मप्रदायका अस्तित्व स्वीकार नहीं मग्न है। किन्तु मथुराके पुगतत्वमे इस मन्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित होता है। मथुगका प्लेट नं० १७ एक नारण स्तम्भका चित्र है ! टममें एक जैन साधु सक्म दिग्वाया गया है। इसी प्रकार एक पनामनम्य जैन मूर्ति यार शरीरपर वस्त्र पहने हुए एंट नं० १के त्रिमे दाई गई है। नं०१७ वाली इंटमे दूसरी ओर जो दृश्य अद्वित है वह अर्द्धफालक सम्प्रदायक अस्तित्वकी प्रमाणिक साक्षी है। उसके ऊपरक अंगमे एक स्तूप है और उसके दोनों ओर दो दो नीर्थकर है । नीचके अशमे एक मुनि हाथकी कलाई पर कपडा डाले हुये खड़े है। उनका सीधा हाथ कवकी ओर उठा हुआ है जिसमे क्योंकि स्वय श्वेतावगचार्य जिनेश्वरसूग्नेि दिगम्बरोंके इन गाथाका उल्लेख किया है.- 'छब्यास सएहि न उत्तरेहि तत्या' सिद्धि गयस्म वीरस्स | कवलियाण विट्ठी बलही पुरिए समुप्पण्णा" जहि० मा० १३ पृ० ४००।
१-जैस्तूर० पृ० २४॥ २-जैस्तूप० पृ० ४१। श्वेतावर शास्त्र अपनी मूर्तियोंमें वस्त्र चिन्ह अंकित करना बतलाते हैं। उनमें मृतियोंको वस्त्राच्छादित बनाने का विधान हमारे देखने में नहीं आया। भूमृतिको वस्त्रालंकारसेषित करनेकी प्रथा श्वेताबरोंमें अर्वाचीन है।