Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 200
________________ १७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुआ था। तथापि अन्तमे निम्रन्थवृत्तिका पतन हुआ और दिगम्बर संघमें भी वस्त्रधारी भट्टारकों (मुनियों) की उत्पत्ति और उनकी मान्यता होने लगी थी। श्री गुणभद्राचार्यजी (८ वीं श०) के समयमे ही दिगम्बर मुनियोंमे शिथिलता घर कर चुकी थी; ऐसा उनकी उक्तियोंसे मालम होता है। और पं० आगाधरजीके समय में दिगम्बरवृत्ति केवल जुगनूके समान चमकती रह गई थी । अतएव यह काल दिगम्बर जैन संघमे एक बड़ी उलटफेर अथवा क्रातिका समय था। और इस कातिके परिणामरूप प्राचीन सरलवृत्तिको बहुत कुछ धक्का पहुंचा था।' सं० ७५३ मे मुनि कुमारसेन द्वारा काष्ठसंघकी उत्पत्ति मथुरामे हुई थी। मथुरा अब भी दिगम्बर जैनोंका केन्द्र था। ईसवी तेरहवीं शताब्दि तक पौराणिक हिन्दुधर्मके साथ शैव, लिहायत, रामानुज पंथ, आदिके भक्तिवाद गृहस्थ धर्म। एवं क्रियाकाण्डने भारतमे खासा प्रभाव जमा लिया था। दक्षिण भारतमे उसकी तूती बोलने लगी थी। प्राकृत जैनधर्म पर भी इस नूतन धार्मिक वृत्तिका बहुत कुछ असर पड़ा था। जहां एक समय जैन धर्मकी अहिंसा वृत्तिने हिन्दूधर्म पर अपनी गहरी छाप लगाई थी, वहां इस कालमे हिन्दूधर्मके भक्तिवाद और कर्मकाण्डने जैनधर्मके स्वरूपको विकृत बना दिया। जैनधर्ममे जातिभेद यद्यपि प्राकृत रूपमे स्वीकृत था, परन्तु वह पारस्परिक घृणा और द्वेषका कारण नहीं था। उसमे जाति और कुलका मोह मिथ्यात्व माना जाता था। किन्तु ब्राह्मणोंके संसर्गसे जैनधर्मानुयायियोंमे भी जातीय-प्रभेदका भूत सिरपर १-ममी०, पृ० १-१८ । २-रश्रा०, पृ० २६ ।

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