Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 201
________________ - उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म [१७९ चढ़ बैठा और तबसे वह बराबर उसे अच्छा नाच नचा रहा है। पहले जैन धर्ममें अमिपूजा, श्राद्ध तर्पण. यज्ञोपवीत आदिको भी स्थान प्राप्त नहीं था; किन्तु इस कालमें इनका प्रवेश भी उसमें हो गया। जहां 'पद्मपुराण' जैसे प्राचीन ग्रंथमें ब्राह्मणोंका "सूत्रकण्ठ" कह कर उपहास उडाया है वहा उपरान्तके ग्रंथों में यज्ञोपवीत धारण करना श्रावकोंका कर्तव्य बतलाया गया है। किन्तु पश्चिम भारतमें रहनेके कारण श्वेताम्बर जैनधर्म पर इन बातोंका कम असर पड़ा मालम पड़ता है। उनमें यज्ञोपवीत पृथा प्रचलित नहीं है और न उनमें जातिपातिके भेदकी कहरता मौजूद है। अभी हालमें एक जर्मन महिलाको शुद्ध करके श्वेताम्बर समाजमे सम्मिलित किया जा चुका है। अजैनोंको जैनधर्ममे दीक्षित करनेका प्रयास इस कालमें खूब चालू रहा था। शङ्कराचार्यके बाद जैनधर्मोअजैनोंकी शुद्धि । नतिके समय जैनाचार्योंको अपने शिष्य बढ़ानेकी धुन सवार थी। दिगम्बर जैनाचार्य श्री माघनन्दिजीकी तो यह प्रतिज्ञाथी कि वह जब तक प्रतिदिन पांच अजैनोंको श्रावकधर्ममें दीक्षित नहीं करते थे, तब तक आहार नहीं करते थे। 'महाजनवंशमुक्तावली से प्रगट है कि "सं० ११७६ में भी जिनवल्लभसूरिने पड़िहार जातिके राजपूत राजाको जैनी बनाकर महाजन (वैश्य) वंशमें शामिल किया था। उसका दीवान जो कायस्थ था वह भी जैनी होकर महाजन हुआथा ।खीची राजपूत जो धाड़ा मारते थे, जैनी हुये थे। श्री जिनभद्रसूरिने राठोरवंशी राजपूतोंको जैनी बनाया था। सं० ११६७ में उन्होंने परमारवंशी

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