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उत्तरी भारतके अन्य राजा व जैनधर्म । [१५१ मध्यप्रान्तका सबसे बडा राजवंश कलचूरियोंका था, जिनका
प्राबल्य ८ वीं व ९वीं शताब्दिमे खूब रहा मध्यप्रांतमें जैनधर्म । था। एक समय कलचूरि राज्य बंगालसे
गुजरात और बनारससे कर्णाटक तक फैला हुआ था और इस वंशके राजाओंका प्रेम जैन धर्मसे विशेप था । जैन धर्मानुयायी राष्ट्रकूटवंशी राजाओके साथ इनके विवाह सम्बन्ध हुये थे। कलचूरियोकी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर थे। इन स्थानोंमें अनेक जैन मूर्तियां और खंडहर मिलत है। वडगांव (जबलपुर) के जैन शिलालेखोंमे कलचूरी राजा कर्णदेवका उल्लेख है; जिनका युद्ध कीर्तिवर्मन चन्देलेसे हुआ था। देवपुरसे प्राप्त एक जैन मूर्तिपर भी सं० ००७ का कलचूरी बंगका लेख है। लखनादोनके किलेसे एक भन्न शिलालेख १० वीं गताब्दिका मिला है, जिससे प्रकट है कि विक्रमसेनने जैन तीर्थकरकी भक्तिमे मंदिर बनवाया था। कलचरिवंगके बड़े प्रतापी नरेश विजल (विजयसिहदेव सन् १९८०)के पक्के जैन धर्मानुयायी होनेके प्रमाण उपलब्ध. है; किन्तु इसी राजाके समयसे कलचूरि राजदरवारमें जैनियोंका जोर घट गया और शैवधर्मका प्रावल्य बढ़ा था। जैनधर्म राजाश्रयविहीन क्षीण अवश्य होगया, पर उसका सर्वथा लोप न होसका। स्वयं कलचूरि वंगमे जैन धर्मका प्रभाव बना ही रहा। मध्यप्रान्तमें जो जैन कलवार सहस्रोंकी संख्यामे मिलते है, वे इन्हीं कलचूरियोंकी संतान है।
१-पूर्व०, पृ० ८-१० । २-मप्राजैस्मा०, पृ० १६ । ३-पूर्व० पृ० २३ | ४-पूर्व० भूमिका पृ० ११-१२ ।