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अन्य राजा और जैन संघ ।
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ईसवी प्रथम शताब्दिसे किचित् पूर्वसे जैन संघकी दशा विचित्र हो रही थी । यह पहले ही लिखा दिगम्बर और श्वेतांवर जा चुका है कि सम्राट् चन्द्रगुप्तके समय में जैनसंघ में मतभेद उपस्थित होगया था ।
संघ-भेड़ ।
और नये दलकी क्षीणधारा बल संचय करती हुई प्रथक रूपसे चलरही थी । स्थूलभद्रके बाद इस नई धारामें आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्तिसूरि, सुस्थितमूरि, इंद्रदिन्नसूरि (काल्कचार्य ), प्रियग्रंथसरि, वृद्धवादिसूरि, दिन्नसरि, सिंहगिरि, वज्रस्वामी आदि अनेक आचार्य हुये, जिनकी वंशपरम्परा आजतक श्वेतावर कुल ४८८ वर्षे होती हैं। श्वेताम्बरोंके तपागच्छकी पट्टावलीमें भी लगभग यही गणना लिखी गई है; जैसे कि निम्न कोष्टकके रूपमें मम० जायसवालजीने प्रगट की हैःश्व० पट्टावली पालक........ वर्ष ६०
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नन्द्रवंश ...१५६
मौर्यवंश
......१०८
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पुष्यमित्र
३०
बलमित्र - भानु मंत्र ६०
नहवान.... ४०
गर्द भिल्ल
१३
४
11.
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शक (विक्रमके राज्याभिषेक होनेतक १८ की वर्षे ) जोड़ ४८८
.....
.. ..
हरिवंशपुराण
पालक .......वर्ष ६०
विजयवश . १५५
४०
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4000
पुरुढ़वश पुष्यमित्र वसुमित्र अग्निमित्र ६०
३०
रासभ (गर्द भिल्ल) १००
नरवाहन
४२
जोड़ ४८७
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