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सम्राट् खारवेल।
४७ महावीरजीके समवशरणसे पवित्र होचुका था, क्योंकि भगवानके समो शरणका कलिगमें आनेका उल्लेख जैनशाम्रोमें मिलता है तथा खारवेलके शिलालेखमें स्पष्ट कहा है कि (पंक्ति १४) इस पर्वतपरसे जैन धर्मका प्रचार हुआ था। इस ही पर्वतपर खारवेल और उनकी रानीने अनेक मंदिर व विहार बनवाये थे। उनमे चारो ओरसे जैन श्रमण और विद्वान् एकत्रित होकर धर्माराधन करते थे। वहापर खारवेलने सुन्दर संगमरमरके पाषाण स्तंभ बनवाये थे, जिनमें घंटा लगे हुये थे।
ऐसे स्तंभ मध्यकालके बने हुये नेपालमे आज भी देखनेको मिलते है । इस प्रकार सम्राट् खारवेलके सुकार्योसे उस समय खूब ही धर्मप्रभावना हुई थी। जैनधर्मका प्रचार ऋषियोंद्वारा दिगन्तव्यापी हुआ था। मालूम होता है कि खारवेलने कोई धार्मिक महोत्सव कराया था, क्योंकि शिलालेखमें कहा गया है (पंक्ति १६) कि सम्राट् खारवेलने 'कल्याणको' को देखने, सुनने और उनका अनुभव प्राप्त करनेमे जीवन यापन किया था। ('धमराजा पसंतो सुणतो अनुभवतो कलाणानि') यह महोत्सव आजकलके विम्वप्रतिष्ठाओंके समय होनेवाले पंच-कल्याणकों के समान ही होते थे, यह कहा नहीं जासत्ता। खारवेल द्वारा निर्मित गुफाओंका मूल्य अत्यधिक है। उनमे भगवान पार्श्वनाथनीकी जीवनलीला सम्बंधी चित्र दर्शनीय है। शिलालेखमें 'अर्कासन' नामक गुफाके वनवानेका उल्लेख है। ये सब गुफायें सुंदर और दर्शनीय है। यूं तो खारवेलके सुकृत्योंसे जैन धमकी विशेष उन्नति हुई ही
थी, किन्तु उनके सदप्रयलसे जो द्वादशाङ्ग