Book Title: Sanghpattak
Author(s): Sanyamkirtivijay
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 18
________________ १७ प्रस्तुत संस्करण तैयार करने में निम्न हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया है, जिन का परिचय इस प्रकार है प्रति परिचय (१) A संघपट्टक-अवचूरि, साधुकीर्ति गणि रचित, रचनाकाल सं. १६१९ । यह “प्रति" मुनि कान्तिसागरजी के निजी संग्रह की है। पत्र ६, त्रिपाठ, जिस का चित्र इस ग्रन्थ में दिया जा रहा है। इस की लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है "सं. १८५३ वर्षे कार्त्तिक कृष्णपक्षे पञ्चम्यां कर्म्मवाट्यां ॥ पं ॥ भीमविजय मुनिना लिलेखि श्री फलवर्द्धिकायां चतुर्मासी चक्रे ॥ श्रीरस्तु ॥" B संघपट्टक- अवचूरि, यह “प्रति” बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर के संग्रह से उनके सुयोग्य - पुत्र राष्ट्रसेवी श्री विजयसिंहजी नाहर की उदारता से प्राप्त हुई थी। वि. सं. २००३ -४ के हमारे कलकत्ता चतुर्मास के समय इस की प्रतिलिपि कर ली गयी थी । प्रति सुंदर सुवाच्य व प्रायः शुद्ध है। (२)-A संघपट्टक- टीका, कर्त्ता, लक्ष्मीसेन, रचनाकाल सं. १५१३, इसकी "प्रति" हमें रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल के अन्तर्गत " ओरियण्टल लायब्रेरी” से प्राप्त हुई थी । सापेक्षतः यह प्राचीन है । अन्तिम इस प्रकार है ॥ इति श्री संघपट्टकस्य टीका परिपूर्णा, लिखिता पं. विनयसोमेन, स्ववाचनार्थम् ॥ B संघपटट्क-टीका, यह “प्रति" अनुयोगाचार्य स्व० श्री केशरमुनिजी गणि के शिष्य मुनिवर पं. बुद्धिमुनिजी गणिने प्रतिलिपि भेजी थी । (३) (A) संघपट्टटक - लघुवृत्ति, कर्ता - हर्षराज उपाध्याय, यह “प्रति” हमें श्री अगरचंदजी नाहय द्वारा प्राप्त हुई थी। मूल प्रति "भांडारकर ऑरियण्टल .. रिसर्च इन्स्टिट्यूट" - पूना में सुरक्षित है। पत्र संख्या २७, प्रति प्राचीन व पंच पाठ है। इस की लिपि बहुत सुन्दर और सुपाठ्य है। देखिये ब्लोक । B संघपट्टक- लघुवृत्ति, यह "प्रति" अनुयोगाचार्य स्व० श्री केशरमुनिजी गणि के शिष्य मुनिवर पं. बुद्धिमुनिजी गणिने इसकी प्रतिलिपि भिजवाई थी। मूल प्रति के लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है संवत् १६०८ वर्षे माह सुदि ५ दिने शनिवारे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनमाणिक्यसूरिविजयराज्ये श्रीविक्रमनगरे गणधर - चोपडागोत्रे सा० देवराजस्तत्पुत्र सा० जगसिंहस्तत्पु० सा० कम्मा भा० प्रा० कौतिकदेवाः पु० रत्न सा० रायपाल सुरताण संसारचंद प्रमुखपरिवारयुतेन सा० रायपालेन ज्ञानपञ्चमीतपस उद्यापने श्रीसंङ्घपटकलघुवृत्तिप्रतिर्विहरापिता श्रीधनराजोपाध्यायानां । वाच्यमानं चिरं नन्दतु ॥ शुभं १. सं. २००३-२००४ कलकत्ता में । Jain Education International Ne For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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