Book Title: Samvegrati
Author(s): Prashamrativijay, Kamleshkumar Jain
Publisher: Kashi Hindu Vishwavidyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ संवेग कहते है। प्रशस्त आलम्बन के प्रशस्य प्रभाव को जीवन्त रखने की भावना को भी संवेग कहते हैं। श्री संवेगरति ग्रन्थ में इस विषय को अनेक आयाम से सोचने का प्रयत्न किया है। आत्मा का मूल स्वभाव निर्लेप अवस्था है । आज आत्मा संस्कार और कर्मो से अवलिप्त है। आत्मवर्ती संस्कार एवं कर्म का संसारवर्ती निमित्तो के द्वारा सञ्चनल और संक्षोभ होता है। जब तक संचलन है, संसारवर्ती निमित्त प्रभावी रहते है। संचलन होना क्या है और संचलन मीटाने के लिये क्या करना चाहिए इस विषय पर हमारे धर्मशास्त्र से जो भी मार्गदर्शन मीलता है उसका यहाँ संकलन किया है । भाव्यमानता, प्रतिभाव, प्रतिक्रिया, अर्थघटन जैसे कुछ शब्द मनोविज्ञान आधारित है । मेरे पितामुनिभगवन्त पूज्यश्री संवेगरतिविजयजी म. के नाम से यह ग्रन्थ निर्मित हुआ है। आपके उपकार अनन्त है। आपको इस ग्रन्थ का समर्पण करने का लाभ मीला यह मेरा सौभाग्य है। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी - प्रशमरतिविजय वि० सं० २०६५ अमरावती

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 155