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निमित्त से प्रभावित होने पर जो भाव उत्पन्न होते हैं, वे प्रतिभाव है। जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, उसी प्रकार भाव से प्रतिभाव उत्पन्न होते हैं । भावों के सदृश विसदृश अन्यान्य भावों की उत्पत्ति प्रतिभाव है । उन भावों से उत्पन्न शरीर और वाणी का व्यापार प्रतिक्रिया है । मनोयोग प्रतिभाव, वचनयोग व काययोग प्रतिक्रिया है ।
इसी प्रकार एक अन्य शब्द है भाव्यमानता। इसे मुनिश्री ने प्रतिभाव उत्पत्ति की पूर्व अवस्था कहा है। निमित्तो का संग होने पर आत्मा का उसमें भावित होना भाव्यमानता है। भावित या वासित शब्द का प्रयोग दर्शनशास्त्र और साहित्यशास्त्र दोनों में है । किसी दूसरी वस्तु की गन्ध से किसी वस्तु का गन्धयुक्त होना वासित या भावित अवस्था है। उदाहरणार्थ उनकी चमेली के पुष्पों में रखा हुआ वस्त्र या कमलों में रखा हुआ चांवल क्रमशः सुगन्ध से व्याप्त हो जाता है । उसी प्रकार आत्मा का भी निमित्तों के संग से भावित होना भाव्यमानता है । निमित्त के उपस्थित होने पर, मुझे आनन्द हुआ या मुझ पर अनिष्ट आ पड़ा इस प्रकार विचार भाव्यमानता है। उसके पश्चात् मनमें उठनेवाली विचार तरंगे प्रतिभाव है।
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ग्रन्थ में अनेक सुभाषित भी है । जैसे कि जीवन में किसी कार्य की सफलता के लिए आवश्यक तीन सोपान है। प्रथम इष्ट कार्य की मन में कल्पना करे दो, इस कार्य की आत्मविश्वास के साथ स्पष्ट योजना बनाए। तीन अपनी क्षमता के अनुसार प्रयत्न करे । यह प्रयत्न सतत होना चाहिए ।
वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में रचित अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त और मनोविज्ञान का त्रिवेणी संगम है । उसकी रचना अध्यात्मपथ के पथिक मुनि द्वारा हुई है। इसलिये इसकी प्रभविष्णुता और बढ़ जाती है।
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प्रॉ. कुसुम पटोडिया MA, Phd, Dit. नागपुर विश्वविद्यालय नागपुर