Book Title: Samvayang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 5
________________ बारह अंग सूत्रों के नाम इस प्रकार हैं- १. आचाराङ्ग २. सूत्रकृताङ्ग ३. स्थानाङ्ग ४. समवायाङ्ग ५. विवाहप्रज्ञप्ति-भगवती ६. ज्ञाता धर्म कथाङ्ग ७. उपासक दशाङ्ग ८. अन्तकृतदशाङ्ग ९. अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र और १२. दृष्टि वाद। इनमें बारहवां अंग दृष्टिवाद अभी अनुपलब्ध है। शेष ग्यारह अंग सूत्रों में समवायाङ्ग सूत्र चौथा अंग सूत्र है। नंदी सूत्र में समवायाङ्ग सूत्र की विषय सूची के बारे में निम्न पाठ आया है। ___ से किं त समवाए? समवाए णं जीवा समासिजंति, अजीवा समासिजति, जीवाजीवा समासिजति, ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिजइ, ससमयपरसमए समासिज्जइ, लोए समासिजइ, अलोए समासिजइ, लोयालोए समासिजई। समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाण सयविवड्डियाणं भावाणं परूवणा आघविजइ, दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लग्गो समासिज्जइ। समवायस्स णं परित्ता वायणा, संखिजा अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिजा सिलोगा, संखिजाओ णिजुत्तीओ, संखिजाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ। से णं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे, एगे सुयक्खंधे, एगे अज्झयणे, एगे समुद्देसणकाले। एगे चोयाले सयसहस्से प्रयग्गेणं, संखेजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा। सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविनंति, परूविजंति, दंसिर्जति णिदंसिजति, उवदंसिजति। से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया एवं .... चरण करण परूवणा आघविजइ। से तं समवाए । अर्थात् - प्रश्न - समवायाङ्ग में क्या विषय है ? ... उत्तर - समवायाङ्ग में यथावस्थित रूप में जीव आश्रयण किये जाते हैं अर्थात् जैसा उनका ' स्वरूप है वही स्वरूप बुद्धि से स्वीकृत किया जाता है अजीव आश्रयण किए जाते है और जीव-अजीव दोनों को विपरीत प्ररूपणा से खींचकर सम्यक् प्ररूपणा में प्रक्षिप्त किये जाते हैं, स्व समय, पर समय और एक साथ स्व समय-परसमय दोनों यथाव्यवस्थित रूप से आश्रयण किये जाते हैं, अर्थात् स्वीकार किये जाते हैं लोक अलोक और लोकालोक उभय सम्यक् प्ररूपणा से कहे जाते हैं। समवाय जीवादि पदार्थों के निश्चय करने वाले सूत्र से एक आदि एक एक की आगे वृद्धि से सैकड़ों स्थानपर्यन्त बढ़े हुए भावों की प्ररूपणा कही जाती है और बारह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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