Book Title: Samvayang Sutra Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना जैन दर्शन की यह मान्यता है कि प्रत्येक भव्य जीव अनन्त आत्म शक्ति का धारक है । ' उसकी आत्म शक्ति किसी भी सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतरागी की शक्ति से कम नहीं है, किन्तु राग द्वेष रूपी विकार भावों के कारण वह शक्ति दबी हुई है। उस शक्ति को वीतराग प्ररूपित विशुद्ध साधना के द्वारा उद्घाटित किया जा सकता है। भूतकाल में अनन्त आत्माओं ने किया, वर्तमान में संख्यात आत्माएं कर रही है और भविष्य में फिर अनन्त आत्माएँ इस मार्ग का अनुसरण कर इस शक्ति को उद्घाटित करेगी। विकार भावों के कारण जो शक्तियाँ दबी हुई थी, उनके पूर्णतः निरस्त हो जाने पर आत्मा की सम्पूर्ण आवृत्त शक्तियों का प्रकाशित होना सर्वज्ञता वीतरागता है। उन वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित कथन एकान्त निर्दोष एवं संसारी जीवों के कल्याण रूप होता है । यद्यपि सभी वीतराग प्रभु का ज्ञान समान होता है, वाणी में निर्दोषता होती है, फिर भी उन सभी वीतराग प्रभु की वाणी का संकलन नहीं किया जाता । मात्र धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले अति विशिष्ट अतिशय सम्पन्न तीर्थकर प्रभु द्वारा कथन की गई वाणी का ही संकलन भव्य जीवों के आत्म कल्याण हेतु उन्हीं के विद्वान् गणधरों द्वारा किया जाता है । . वही संकलन आगम / आप्त वचन / शास्त्र / सूत्र रूप में मान्य है। वर्तमान में उपलब्ध बत्तीस आगम चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर एवं उनके विशिष्ट ज्ञानी पूर्वधारी आचार्यों द्वारा प्ररूपित वाणी का संकलन है। प्राचीन काल में जब लेखन प्रणाली नहीं थी, उस समय आगमों को गुरु परम्परा से कंठस्थ करके उन्हें सुरक्षित रखा जाता था। पर जैसे-जैसे काल के प्रवाह से स्मृति दोष आने लगा तो इस श्रुत निधि को सुरक्षित रखना आवश्यक हो गया। परिणाम स्वरूप वीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष पश्चात् वल्लभी (सौराष्ट्र) नगरी में श्रुतपारगामी आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमा श्रमण के नेतृत्व में विद्वान् श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, लुप्त होते आगम ज्ञान को लिपी बद्ध किया गया। फिर भी काल दोष, मान्यता भेद, स्मृति की दुर्बलता, सम्यक् गुरु परम्परा बोध की कमी आदि अनेकानेक कारणों से आगम सम्पत्ति जिस रूप में उपलब्ध होनी चाहिए, उस रूप में नहीं है, फिर भी जो सूत्र सम्पदा उपलब्ध है वह मुमुक्षु आत्माओं के मोक्ष साध्य को प्राप्त कराने में पर्याप्त है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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